रविवार, 26 अप्रैल 2009
छत्तीसगढ़ का किसान
पलारी गाँव से भोपाल और दिल्ली तक का सफर
धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के लिए सदा संघर्षरत रहे सपूतों में मेरे बाबूजी (बृजलाल वर्मा) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। वे डॉ. खूबचंद बघेल तथा ठा. प्यारेलाल सिंह से प्रभावित ऐसे नेता थे जिनके मन में अंचल के किसानों, श्रमिकों पर होने वाले शोषण के प्रति पीड़ा थी, उनके लिए उन्होंने सदैव संघर्ष किया, उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाया।
छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के वासियों की पहचान के संदर्भ में उनके अपने मापदंड थे, उनका कहना था- 'यहाँ की मिट्टी से जिसे प्यार हो, यहाँ के रहने वालों के प्रति जिनके दिल में दुलार हो, यहाँ की अस्मिता विरोधी लोगों के खिलाफ जिनकी भावना में प्रबल प्रतिकार हो, फिर चाहे वह कितना भी सशक्त सत्ताधारी क्यों न हो, वह शोषण करने वालों के विरूद्ध आवाज उठाने वाला हो, तथा वह बिना किसी स्वार्थ के छत्तीसगढ़ के हित के लिए बात करता हो, उसके सामने चाहे उसका हिमायती हो चाहे आलोचक वह अपनी बात पर दृढ़ता से डटा रहे वही असली छत्तीसगढ़ी है।
एक सम्पन्न कृषक परिवार से होने के बाद भी बाबूजी छल-कपट से दूर ग्रामीण प्रकृति के नेता थे। उन्हें छत्तीसगढ़ के कृषक पुत्र होने पर गर्व था, वे छत्तीसगढ़ी में बोलकर स्वाभिमान का अनुभव करते थे, उनके इन्हीं सरल प्रकृति का ही परिणाम था कि वे भारतीय जनसंघ, जनता पार्टी और लोक दल के प्रदेशाध्यक्ष बनाये गये थे।
वे छात्र जीवन से ही आजादी के आंदोलन से जुड़ गये थे। नागपुर में विधि की शिक्षा की दौरान भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें एक वर्ष, परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया था। विधि की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने रायपुर और बलौदाबाजार में वकालत आरंभ की। उन्होंने इसे पेशे के रूप में कभी नहीं अपनाया, इसे शोषण के विरूद्ध लड़ाई का माध्यम बनाया, इसी दौरान वे सहकारी आंदोलन से जुड़े और उन्होंने किसानों में जागृति लाने का बीड़ा उठाया। इस आंदोलन के नेतृत्व के दौरान वे जेल भी गये।
उनके राजनैतिक जीवन की शुरुवात कृषक मजदूर प्रजा पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने के साथ हुई। 1952 में व वे पहली बार सोसलिस्ट पार्टी के बैनर तले विधायक चुने गये। बाद में वे प्रजा सोसलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये, 1965 में कांग्रेस में शामिल जरुर हुए पर ज्यादा दिन यहाँ न रह सके। 1967 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र के विरूद्ध बगावती बिगुल बजाने वालों में वे सबसे आगे थे। 36 विधायकों के साथ मिलकर उनके नेतृत्व में मिश्र की सरकार गिरा दी गई थी; फिर संयुक्त विधायक दल की सरकार में बाबूजी का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया गया जिसे उन्होंने उदारता से इंकार कर दिया और गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री के पद पर आसीन किया गया, लेकिन संविद सरकार में मंत्री के रूप में उन्होंने सिंचाई, विधि योजना विकास, कानून और जेल जैसे आठ विभागों को कुशलतापूर्वक संभालकर अपनी कर्मठता का परिचय दिया। 1970 में आप जनसंघ में आ गये, 1974 में मध्यप्रदेश जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए, इस पद पर वे जनता पार्टी के उदय होने तक आसीन रहे। 1975 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में सहयोग के कारण 27 जून को वे 'मीसा’ के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिए गए। 22 माह की मीसा बंदी के दौरान वे रायपुर, सिवनी, जबलपुर तथा दिल्ली के जेलों में रखे गये।
1977 के चुनाव में अविभाजित मध्यप्रदेश की महासमुंद संसदीय क्षेत्र में अपने प्रतिद्वंदी को हराकर उन्होंने बहुमत से विजयश्री हासिल की और भारत सरकार में आपको पहले उद्योग मंत्री फिर संचार मंत्री बनाया गया।
संचार मंत्री के रूप में उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जो कुछ भी किया वह एक सच्चा ग्रामीण हितैषी दृढ़ निश्चयी व्यक्ति ही कर सकता था। छोटे-छोटे गाँवों में पब्लिक कॉल अॉफिस खोलकर उनकी व्यवस्था गाँव के ही गैर सरकारी व्यक्ति को सौंपा जाना, उनकी कार्यशैली का अनुपम उदाहरण है। देश, प्रदेश के साथ-साथ छत्तीसगढ़ में भी उन्होंने अनेक डाक एवं तार घर का निर्माण किया पहले डाक घर की जिम्मेदारी गांव के किसी शिक्षक को सौंपी जाती थी, परंतु बाबूजी ने किसी ग्रामीण को ही इसकी जिम्मेदारी सौंपकर, रोजगार के नये आयाम खोले, जो उनकी स्वतंत्र व क्रांतिकारी सोच का परिणाम है।
स्वाधीनता के समर के एक समर्पित सेनानी के नाते उनके सामने आजादी के नये लक्ष्य, आदर्श और उद्देश्य थे, वही उनके बाद के सार्वजनिक जीवन की तलाश भी बने। बाबूजी को सत्ता और अधिकार के ऊंचे पद मिले, परंतु वह संतोष नहीं जो उनकी राजनीतिक सक्रियता का परम उद्देश्य था। राजनीति में आये गिराव ने उन्हें दुखित कर दिया था संभवत: इसीलिए उन्होंने अपने अंतिम दिनों में अपने को राजनीति से पूर्णत: विलग कर लिया था, लेकिन समाज व किसानों के लिए कुछ कर पाने की उनकी तड़प तब भी कम नहीं हुई थी। वे अंतिम समय तक उनके लिए लड़ते रहे।
छत्तीसगढ़ अंचल की सोचनीय स्थिति और यहाँ के लोगों की व्यथा को दूर करने के लिए वे सदैव प्रयासरत रहे, छत्तीसगढ़ के प्रति हो रही उपेक्षा के प्रति उनके मन में आक्रोश था। पृथक छत्तीसगढ़ के लिए भी उन्होंने जनता पार्टी में रहते हुए आवाज उठाना शुरू कर दिया था और अंत तक वे इसके लिए प्रयास करते रहे थे।
उन्होंने पृथक छत्तीसगढ़ का सपना देखा था, और इसके लिए निरंतर संघर्षरत भी रहे। यह
सपना उनके जीवन काल में तो पूरा न हो सका पर इस प्रयास में उनकी भागीदारी को
छत्तीसगढ़ वासी भूला नहीं सकते।
वे चाहे सत्ता में रहे हों या विपक्ष में बैठे हों उन्होंने अपना ध्यये जनता की सच्ची सेवा ही रखा- छत्तीसगढ़ अंचल उनके अवदान को उनकी सेवा को कभी भुला नहीं सकता। वे छत्तीसगढ़ के सच्चे माटी पुत्र थे।
प्रस्तुतकर्ता udanti.com पर 11:29 am
लेबल: जेल डायरी - व्यक्तित्व
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