शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

किश्त पाँच


कांग्रेस प्रवेश के बाद राजनीतिक उठापटक का दौर
सेंट्रल जेल रायपुर 16 जुलाई 1975
और...1962 का उपचुनाव जीत गया
मैं पूर्व में बता चुका हूं कि मेरे प्रतिद्वंदी कांग्रेसी उम्मीदवार के देहांत के बाद 1962 के उप चुनाव में बलौदाबाजार से मुझे पुन: चुनाव के लिए कहा जाना लगा। मेरा मन चुनाव लडऩे का था ही नहीं, पर इसी बीच पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र के कई भक्त मेरे पास आने लगे यह कहते हुए कि मैं यहां से चुनाव न लड़ूं, क्योंकि पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र को कांग्रेस ने खड़े होने की इजाजत दे दी है, वे यहां से जीतेंगे, तो यहां पर तुम भी अपना काम करा लेना। इतना ही नहीं बिलासपुर से डॉ. पं. ज्वाला प्रसाद, जबलपुर से स्व. गुप्ता तथा और कई लोग आये मुझे इस बात के विवश करने कि मैं यहां से चुनाव न लडूं। तब मैंने उनसे कहा कि मैं पार्टी के हुक्म के खिलाफ नहीं जा सकता अगर वे मुझे खड़े होने का हुक्म देंगे तो खड़ा होना पड़ेगा। इसी बीच कसडोल की सीट भी अचानक भूपेन्द्रनाथ मिश्र के स्वर्गवास से खाली हो गई और पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र को वहां से खड़े होने का मौका मिल गया। दोनों स्थानों के चुनाव एक साथ हुए। उस वक्त कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज यहां तक इंदिरा गांधी तथा जगजीवन राम जैसे नेता चुनाव प्रचार के लिए आए, साथ में प्रान्तीय नेता व मंत्रीगण तो चुनाव प्रचार में लगे ही थे। इन सबके बाद भी मैं बलौदाबाजार से जीत गया लेकिन कसडोल की सीट हम लोग हार गये और मिश्र जी जीत गये।
पं. मिश्र चालाक आदमी तो पहले से ही थे उनने चीफ मिनिस्टर बनने के लिए डॉ. कैलाशनाथ काटजू को धोखे में रखा और उनकी आड़ में खुद चीफ मिनिस्टर बन गये। मिश्र जी हमेशा अपने ही आदमी को जिसने उन्हें मदद की हो, वे उसे जरूर धोखा देते हैं। मैंने राजनीति में उनके जैसा दगाबाज आदमी किसी दूसरे को अभी तक नहीं पाया। 1937 में भी जब कांग्रेस की मिनिस्ट्री थी उस वक्त भी बड़ी चालाकी से डाक्टर खरे को नीचा दिखाया तथा सन् 1949-50 में पं. जवाहरलाल नेहरू को भी धोखा दिया और बेईमानी की राजनीति की। लेकिन आदमी चालाकी से फिर से इंदिराजी को खुश करके डॉक्टर काटजू को धोखा देकर खुद मुख्यमंत्री बन गये। मैं और डॉक्टर खूबचंद बघेल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह तथा ठा. निरंजन सिंह, मिश्र की आदत को जानते थे, पर तामसकर जी उनकी बात में आ गये और सन् 62 में कांग्रेस में शामिल हो गये। कसडोल क्षेत्र के चुनाव में तामसकर जी ने पं. मिश्र का तन मन धन से साथ दिया । पर सन् 1967 के चुनाव में विधानसभा में तामसकर जी को सीट नहीं मिली। तामसकर जी इससे बहुत दु:खी थे और इसी कारण उनकी तबियत बहुत ज्यादा खराब हुई और उनकी मौत दुर्ग में हो गई। एक बहुत अच्छे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की इस तरह हुई मृत्यु से हम सबको बड़ा दु:ख हुआ। अभी भी जब मैं उनको याद करता हूं तो दिल में दर्द होता है कि कैसी परिस्थिति में उनका स्वर्गवास हुआ।
1967 में भी कांग्रेस से मेरी जीत हुई
आगे हिंदुस्तान की राजनीति ने फिर पलटा खाया प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पी.एस.पी.) में दो दल हो गये एक दल का नेतृत्व अशोक मेहता जी कर रहे थे तथा दूसरे दल का लोहियाजी। हम लोग जिसमें डॉक्टर खूबचंद बघेल, मैं तथा मध्यप्रदेश के कुछ साथी- किलेदार, शशिभूषण सिंह, श्रीवास्तव आदि, अशोक जी के पक्ष में थे। तब कांग्रेस ने आवाह्न किया कि देश संकट में है अत: हम सबको कांग्रेस में आ जाना चाहिए। उस समय सारे भारत वर्ष के पी.एस.पी. ग्रुप ने लखनऊ में एक विशाल सम्मेलन किया, सभी ने, जो अशोक जी के मत के थे वहां आकर कांग्रेस में जाने का फैसला किया। उस सम्मेलन में कांग्रेस अध्यक्ष कामराज जी तथा श्रीमती कृपलाणी, जो उस समय उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं भी आये और यह आश्वासन दिया कि हम सबको पुराने कांग्रेसियों के समान बराबरी का दर्जा दिया जाएगा। नए पुराने में कोई भेदभाव नहीं होगा, न पार्टी में, न एसेम्बली में, न पार्लियामेन्ट में। इस प्रकार हम सब 1964 में कांग्रेस में आ गये। सन् 1967 के चुनाव में भी मैं कांग्रेस उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव जीतकर विधानसभा में गया परंतु सन् 1964 से 1967 तक जितने समय हम लोग कांग्रेस में रहे वह समय हम सभी के लिए दु:खद था। वहां कांग्रेसी आपस में लड़ते थे उन्होंने हमें भी उसी कीचड़ में उतार दिया था जिसके कि हम लोग कभी भी आदी नहीं थे। स्वाभिमान से कार्य करने वाले हम लोग ज्यादा दिन वहां टिक नहीं सके और एक दिन आया कि हम सब कांग्रेस से अलग हो गये। कैसे अलग हुए इसका भी अजीब इतिहास है जिसे बाद में लिखूंगा। अभी जिन 3 वर्षों तक कांग्रेस में रहा उसका कुछ स्मरण लिख लूं-
तब डॉ. खूबचंद जी बघेल भी कांग्रेस में आ गये थे। पर वे पर्लियामेन्ट की सीट हार गये थे इसलिए खाली से थे। मेरी हार्दिक इच्छा थी कि उन्हें मैं राज्यसभा में भेजूं इसके लिए मैं पहले अशोक जी से मिला। उनने सहयोग देने का वादा किया कि दिल्ली में वे मुझे मदद करेंगे, पर यहां मध्यप्रदेश में तो हम लोग एक चालाक चुस्त आदमी पं. मिश्रजी के पाले पड़े थे इसलिए हमें कार्य करने में बड़ी अड़चन थी। अत: मैंने डाक्टर साहब को सलाह दी कि आप मिश्रजी से एक दिन अकेले में सादे ढंग से जाकर मिल लें तथा अपने पुराने संबंधों का हवाला देते हुए कि हम एक साथ पढ़े हुए हैं और अब तो हम सब उनके साथ हैं तथा जैसा भी वे चाहे हमें अपने साथ रख कर हमें कार्य बताएं उसी के अनुसार हम चलेंगे। डॉक्टर साहब पहले तो हिचके पर फिर जाने को राजी हो गये। वे मिश्र जी के पास योजनानुसार गये और बात करके आ गये। तब राज्य सभा का सवाल करीब-करीब एक दो माह में आने वाला था। जब सवाल आया तो मैं मिश्र जी के पास गया और बघेल जी के नाम का प्रस्ताव रखा। पहले तो उन्होंने हां नहीं, कुछ नहीं कहां, सिद्धांत की बात करते रहे कि यह तो दिल्ली से तय होता है, मैं कैसे हां कहूं। जब मैंने कहा कि- आप से पूछा जाए तो आप हां कहें बस मैं इतना ही चाहता हूं, और इस चुनाव में आप हमें खुल कर मदद करेंगे। इस पर उनने हांमी भर दी। जब राज्यसभा के चुनाव का समय आया तो मिश्र जी ने आखिर में जो कांग्रेस की ओर थे, उनने सिर्फ इतनी मदद की कि मुख्य उम्मीदवारों में नाम नहीं रखा। मुझे अपने पर भरोसा था कि अगर कांग्रेस के एक्ट्रा वोट मिल गये तो मैं स्वतंत्र विधायकों से वोट ले लूंगा। और ऐसा ही हुआ स्वंतत्र साथियों ने वोट दिया और पहली ही गिनती में डॉ. खूबचंद जी बघेल चुन कर आ गये। मैंने डॉक्टर साहब से अपना वादा पूरा किया। डॉक्टर साहब ने खुश हो कर मुझे सीने से लगा लिया और कहा, कि यह मेरी नहीं तुम्हारी जीत है तुमने जो प्रयत्न किया वह बहुत ही सराहनीय था।
इन तीन वर्षों में, मैं जब तक 1964 से 1967 के शुरू तक कांग्रेस में रहा, हमारी स्थिति बहुत ही अजीब थी। कोई कांग्रेसी हमें कुछ कह तो सकता नहीं था, क्योंकि हम उनके बल पर जीत कर नहीं आये थे और न हमपर उनने कोई अहसान ही किया था। पर जब भी कोई पद या जिम्मेदारी का सवाल आता था तो वे लोग हमें अलग ही रखते थे। महत्वपूर्ण फैसले चुपके से आपस में तय कर लिया करते थे तब हमें पता चलता था। सभा- संगठन में हमें बोलने का मौका देने में भी उन्हें हिचक होती थी। शासन में भी सहयोग की बात आती थी तो हमें दूर ही रखते थे। कई बार हम लोगों ने शिकायत की, खासतौर से अशोक जी से तो वे कहते थे कि मैंने मिश्र जी से, जो उस वक्त मुख्यमंत्री थे से कह दिया है कि तुम लोगों को सब बातों में साथ रखेंगे तथा प्रतिष्ठा में कमी नहीं करेंगे तथा थोड़े दिनों में सबको ठीक स्थानों पर एडजस्ट कर लेंगे। पर वास्तव में उनकी भावना रहती थी कि 'अच्छा, शिकायत करते हो, अब तुम लोगों को देख लूंगा।Ó यह उनकी गतिविधियों से साफ जाहिर होता था। ऊपर से तो मिश्र जी भी हमेशा ऐसा ही व्यक्त करते थे कि हम पी.एस.पी. जितने भी लोग कांग्रेस में आए हैं उनसे उनका अच्छा प्रेम है तथा उचित मौका आने पर उन्हें उचित पद देने में जरा भी नहीं हिचकेंगे, लेकिन वे हमेशा इसका उल्टा ही काम करते थे, वे कांग्रेस में भी, जो दो गुट थे एक उनका तथा दूसरा देशलहरा का यानी प्रत्यक्ष में बाबू तखतमल जी का, उसे भी दबाने में लगे रहते थे। उनके दल में से एक को तो मंत्री बना दिया था, क्योंकि उनने डॉ. काटजू को मुख्यमंत्री पद से हटाने तथा मिश्र जी को बिठाने में मदद किया था।
इस प्रकार सन् 1966 का आखरी समय आ गया और अब चुनाव के लिए जो फरवरी 1967 में होने वाली थी उसकी भी तैयारी शुरू हो गई। सबको अपनी अपनी टिकट की फिक्र हो गई। कैसे टिकट हासिल किया जाए इस पर ही चर्चा होने लगा। इसी सिलसिले में मुझसे श्री गोविंद नारायण सिंह ने भी चर्चा की। मैं कहता था कि हमें टिकट की गारंटी है। प्रजा सोसलिस्ट पार्टी (पी.एस.पी.) से जितने भी एम.एल.ए. कांग्रेस में आए हैं उन सबको टिकट मिलेगी इसे मिश्र जी भी नहीं काट सकते इसलिए हमें कोई फिक्र करने की बात नहीं है। पर गोविंद नारायण सिंह को फिक्र थी क्योंकि उनका मिश्र जी से मिनिस्ट्री में झगड़ा हो गया था और मिश्र जी ने उन्हें कोई भी अच्छा विभाग नहीं दिया था जबकि गोविंदनारायण सिंह ने भी मिश्र जी को मुख्यमंत्री बनाने में बहुत ज्यादा साथ दिया था लेकिन बाद दोनों में झगड़ा हो गया। गोविंद नारायण सिंह ने कहा कि टिकट लेते वक्त हम लोग यह कोशिश करें कि अपने-अपने साथी, जो हमें मदद करने वाले हों उन्हें ज्यादा से ज्यादा टिकट दिलाएं, मैं इसका मतलब नहीं समझा। फिर बाद में उन्होंने कहा कि मिश्र को हमें फिर से चीफ मिनिस्टर नहीं बनने देना है, इसलिए इसकी तैयारी अभी से करो, जब मैंने कहा यह तो पार्टी की बात है और हाई कमांड का सवाल है कि किसे वे मुख्यमंत्री के लिए सुझाव देते हैं। तब फिर गोविंदनारायण सिंह ने राजमाता विजयाराजे सिंधिया ग्वालियर तथा आंग्रे जी से जो उनकी बात हुई थी उसे बतलाया, कि उनने कांग्रेस छोड़ दिया है और हम कांग्रेस में हैं हम जैसा मौका देखेंगे वैसा उनकी मेजार्टी बनाने में मदद करेंगे इस तरह हम लोग निर्णायक की स्थिति में आ जाएंगे। पर मैंने कहा कि हमें ऐसी स्थिति में कांग्रेस से अलग होना पड़ेगा और जो हमारे साथ जीत कर कांग्रेस की टिकट से आयेंगे वे इस बात को स्वीकार करेंगे या नहीं यह अभी कैसे कहा जा सकता है। तब गोविंद नारायण सिंह ने कहा यह सब बाद में देखा जायेगा, अभी तो अपने बीच के जो भी मित्र तथा विश्वसनीय लोग हंै उन्हें टिकट दिलाने की कोशिश करें। इसके बाद मैंने इस विषय पर ज्यादा चर्चा नहीं की क्योंकि यह योजना मुझे अजीब सी लगी।
जब उम्मीदवारों को टिकिट देने का वक्त आया तो उसमें तो मुझे दिलचस्पी लेना ही था । मैं जितने को टिकट दिलाना चाहता था उसमें मैं 80 प्र.श. तक सफल हो गया। दुर्ग जिला, रायपुर जिला, नरसिंगपुर जिला और बालाघाट तथा कुछ रायगढ़ में हमारे लोगों को टिकट मिल गई। गोविंद नारायण सिंह इस प्रयास में बहुत ही कम सफल रहे यहां तक कि उनको ही कांग्रेस से टिकट नहीं दिया जाएगा ऐसा दिल्ली में तय हुआ। मिश्र जी भी अड़ गये कि गोविंद नारायण सिंह को टिकट नहीं मिलना चाहिए। मिश्र जी चीफ मिनिस्टर थे तथा उनकी बात मध्यप्रदेश के मामले में मानी ही जाती थी। लेकिन गोविंद नारायण के पिताजी दिल्ली आये उनने रीवां महाराज से प्रार्थना की, कि वे गोविंद नारायण सिंह को टिकट दिलाएं। इस तरह राजा साहब के कहने पर गोविंद नारायण सिंह को टिकट मिली। और जब सन् 1967 के चुनाव के बाद मिश्र जी मुख्यमंत्री बन गये तो गोविंद नारायण सिंह ने मुझसे कहा कि मिनिस्ट्री में हम दोनों को नहीं लिया गया अत: हम लोग बागी होकर इस मिनिस्ट्री को खत्म करेंगे। पहले तो मैं राजी नहीं हुआ क्योंकि राजमाता जी से उनकी क्या बात हुई है, उसे मैं नहीं जानता था। बाद में जब राजमाता जी और सरदार आंग्रे से मेरी बात हुई जहां गोविंद नारायण सिंह भी उपस्थित थे, वहां राज माता ने कहा कि आप लोग कदम उठाओं पूरा विरोधी दल आपका साथ देगा।
इस योजना के मुताबिक मैंने तथा गोविंद नारायण सिंह ने एक साथ मिलकर योजना बनाई और अपना-अपना क्षेत्र बांट लिया कि कौन किस क्षेत्र में कितना काम करेगा और कांग्रेस के कितने एम.एल.ए. को अपने साथ लाएंगे तथा जब सरकार बनेगी तो कैसा रूप होगा तथा किसे क्या पद दिया जाएगा। इस तरह हम दोनों हांमी भर कर, मैंने महाकौल क्षेत्र तथा गोविंद नारायण सिंह ने रीवां, भोपाल क्षेत्र और मध्य भारत के कुछ हिस्से का जिम्मा लिया और इस योजना पर कार्य अप्रैल 1967 से शुरू हुआ।

0 Comments:

उदंती.com तकनीकि सहयोग - संजीव तिवारी

टैम्‍पलैट - आशीष