मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

किश्त दो

मीसा में गिरफ्तारी और जेल में बचपन की यादें
रायपुर सेंट्रल जेल 29 जून 1975
मीसा में गिरफ्तारी के लिए वारंट मेरे पास पलारी(गृह ग्राम) भेजा गया पर वहां की पुलिस ने मुझे गिरफ्तार नहीं किया। एस.डी.ओ. खन्ना और सरकल थानेदार को बतलाकर वारंट लाने वाले चले गये। मेरी गिरफ्तारी की खबर मुझे 26 जून को ही लग गई थी उसके लिए मैं तैयार भी था। दूसरे दिन 27 जून मैं बलौदाबाजार में था जहांं बिना वारंट दिखाये मुझे गिरफ्तार किया गया और रायपुर जेल में लगभग 7 बजे शाम को लाया गया। गिरफ्तारी के पहले मैं बलौदाबाजार में अपने कुछ साथियों से मिला जिसमें त्रिवेदी, उत्तम अग्रवाल आदि थे। उनने मुझसे पूछा कि हमें अब क्या करना चाहिए तो मैंने उन्हीं पर छोड़ दिया कि जो ठीक लगे करो। थोड़े दिनों बाद वे सत्याग्रह करके डी.आई.आर. में रायपुर जेल आये फिर जमानत में छोड़ दिये गये। उन सबने भी साहस का कार्य किया। जेल में आते ही मुझे डॉ. रमेश, कौशिक, लिमिये जी आदि ने, जो आपातकाल लगने के पहले ही रायपुर जेल आ गये थे, मेरा स्वागत किया। जेल में पार्टी के अब काफी साथी आ गये हैं। जिनके साथ हमारी चर्चा चलती रहती है कि कांग्रेस सरकार कम्युनिस्टों से मिलकर तानाशाही लाना चाह रही है तथा मीसा कानून में ऐसा परिवर्तन कर रही है जिससे बंदियों के लिए अदालत का दरवाजा बंद हो जावे। मेरी गिरफ्तारी भी गलत आरोप लगा कर की गई है, मैंने कभी भी संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ अप्रजातांत्रिक कार्य नहीं किया है। न कभी कोई हिंसक कार्य किया और न दूसरों को ही हिंसक कार्य के लिए प्रेरित करता हूं। मैं जब कांग्रेस से के.एम.पी.पी. में आया फिर पी.एस.पी. में आकर थोड़े दिनों के लिए अशोक मेहता के साथ कांग्रेस में जाकर जनसंघ में शामिल हुआ वहां कहीं भी मेरी ऐसी प्रकृति नहीं रही कि राजनीति में किसी प्रकार की हिंसा का प्रवेश हो। प्रिय निरेन्द्री ( पत्नी को पत्र) 29 जून 1975 मैं जब परसों तुम्हें घर पर छोड़कर पुलिस गाड़ी में बैठकर जेल चला गया तब तुम्हारे दिल में पीड़ा तो थी पर तुमने जरा भी मेरे सामने उसे प्रगट होने नहीं दिया पर मैं तुम्हारे चेहरे से भांप गया। तुमने तो एक दिन पहले ही जान लिया था कि मैं जेल जा रहा हूं। तुमने ही इसकी सूचना मुझे दी थी। इतना ही नहीं मेरी सभी जरूरत के सामनों को भी तुमने तैयार करके रखा था क्योंकि तुम जानती थी कि मुझसे कुछ बात करने का ज्यादा मौका नहीं मिलेगा। मुझे यह भी याद है कि जब मैं हाथ- मुंह धोने अंदर रायपुर के घर में गया, यह कहते हुए कि बलौदाबाजार से गिरफ्तारी के समय जो पुलिस वालों मेरे साथ हैं उन्हें चाय पिला दो । उसी दौरान पुलिस इंसपेक्टर के यह जानकारी लेने पर कि घर के पीछे कोई दरवाजा है क्या? तुमने थोड़ा नाराज होते हुए उससे कहा था कि क्या तुम यह सोचते हो वे भाग जावेंगे। फिर पुलिस ने तुमसे क्षमा मांगी। वे अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। यह बात पुलिस ने मुझ बाद में बताई तो मुझे लगा तुम बहुत साहसी हो और वह होना भी चाहिए क्योंकि वह तुम्हारे खून में है, एक क्रांतिकारी के घर में जो पैदा होता है वह ऐसी परिस्थितियों का मुकाबला साहस से ही करता है मुझे इस पर अभिमान है। मां बाप का असर बच्चों पर जरूर ही पड़ता है। 8 जुलाई 1975 मैं तुम्हें हर एक दो दिन में पत्र द्वारा अपने जरूरतों तथा स्वास्थ्य के बारे में लिखता रहा तथा घर का काम काज भी लगातार बतलाता रहा जिसे तुम धीरज के साथ पूरा करती रही मुझे लगा कि तुम पर बहुत भार हो गया और उस भार को कम करने के लिए सरहूराम वोटगन वाले को बुला कर बात करके कुछ काम में लगा लेने के लिए भी लिखा जैसा तुमने किया भी। मैं राजनीति के गतिविधियों में इतना ज्यादा व्यस्त रहता रहा हूं कि घर का कार्य करीब-करीब तुम्हीं लोग करते रहे हो इसी कारण से मैं जरा निश्चित रहता था। पर आर्थिक स्थिति दिन प्रतिदिन कमजोर होने से बाप- दादों की जायदाद को बेच कर पूरा करना तथा अपना खर्च पूरा करना कई वर्षों से चला आ रहा था। खर्च मेरा ही ज्यादा रहता है और हिसाब किताब में भी बहुत ज्यादा लापरवाह हूं इसलिए संयम से खर्च नहीं कर पाता न नियमित बजट ही बनाता। जब तुम पलारी में थी तब कुछ न कुछ करके याने रहन वगैरह रखकर कुछ पैसा अर्जन भी कर लेती थी। अब वह भी 4-5 वर्षों से बंद हो गया है। तो भी तुम कैसे खच चलाती ही यह तुम्हीं जानों क्योंकि दिन पर दिन खर्च बढ़ रहा है और आमद कम होतेे जा रही है। बच्चे सब पढ़ाई में लगे हैं। बाबू (बड़ा पुत्र )का अब आखरी साल है मुझे पूर्ण आशा तो है कि वह इस वर्ष अपनी पढ़ाई पूरी करके आ जायेगा और किसी न किसी कार्य में लग जायेगा। घर आने पर ही पता चलेगा कि वह क्या करना चाहता है। मैं तो तुम्हें कई बार कह चुका हूँ कि बाबू को घर के खेती बाड़ी के पचड़े से अलग रखकर कोई स्वतंत्र कार्य करने को कहूंगा पर वह क्या करता है यह तो उसी पर ज्यादा निर्भर है। पर गांव में उसे मैं नहीं रहने देना चाहता यह मेरी इच्छा है। यह सब उससे मालूम करके बतलाना। 10 जुलाई 1975 तुम्हारा पत्र आज मिला। आज दिन भर मालूम नहीं क्यों मैं आपने पिता जी (कलीराम) तथा अपने खानदान तथा उनके सारे व्यवहारों के बारे में सोचता रहा। खाली समय यहां बहुत रहता है तो मैं ने सोचा कुछ लिख डालूं। मैं बचपन से बहुत ही सुख व प्यार से पला हूँ। पूरे परिवार में मैं ही सबसे छोटा लड़का था। मेरी माँ का देहांत मैं जब डेढ़ वर्ष की उम्र का था तभी हो गई थी। पर बिना माँ के रहकर भी मुझे मां का पूर्ण सुख मिला मुझे बाद में परिवार वालों से पता चला कि जब मैं 2 वर्ष का था तब तिलकराम ( चचेरा भाई) की सगी काकी के पास रहने लगा था उन्हें ही मैं अपनी मां समझता था। मेरे पिताजी भी उनका बहुत आदर करते थे क्योंकि पिताजी को भी उनने अपनी गोद में खिलाया था दोनों की उम्र में करीब 20-22 साल का अंतर था। यही कारण है कि पिताजी को उन पर पूर्ण विश्वास था कि मैं उनके पास पूरा प्यार पाऊँगा । वे विधवा थी उनकी एक ही लड़की थी। पारिवारिक बटवारे के बाद जब मेरे पिताजी व तिलकराम के पिता ( सदाराम जी) अलग हो गये तब भी मैं बहुत छोटा था करीब 4-5 साल का ही लेकिन तब भी मैं अपने पिता के घर न रहकर उन्हीं के साथ रहता था। इसी बीच घटी एक घटना मुझे आज याद आ रही है- मैं लगभग 6 साल था तब एक साधु जो गेरुआ वस्त्र पहनता था, गांव में ही हमारे ही घर रहता था तथा मेरे साथ दिन रात खेला करता था, उसे हम सब बाबा कहते थे। एक दिन गर्मी की दोपहर उसकी नियत मेरे पहने हुए सोने चांदी के जेवरों पर पड़ी (मुझे तब कान में, गले में, हाथ में, कमर में सभी अंगों में सोने के गहने पहना कर रखते थे) पलारी के आस पास तब बहुत घना जंगल हुआ करता था, दिन ढलने के बाद वहां कोई बाहर नहीं जाता था। लेकिन बाबा मुझे उस दिन आम खिलाने के बहाने उधर ही ले गया। मैं तो उसके साथ हमेशा खेलता था सो चला गया पर जंगल पंहुच कर उसने मेरे सारे सोने चांदी के जेवर निकाल लिए और जब मैं रोने लगा तो मुझे एक तमाचा मार कर गांव की तरफ इशारा करके जाने के लिए धमकाया। मैं रोते हुए चला आया और आकर खैया तालाब में पानी पीने लगा, क्योंकि धूप बहुत तेज थी और मुझे प्यास लगी थी। कुछ लोगों ने जब मुझे रोते हुए देखा तो वे मुझे घर ले गये। पहले तो किसी का ध्यान मेरे जेवरों की तरफ नहीं गया सब सिर्फ यही पूछने लगे कि दोपहर को कहाँ घूप में चले गये थे और प्यार से मेरा पसीना आदि पोछने लगे तभी उनकी नजर मेरे जेवरों पर पड़ी तब मैंने सारा हाल बतलाया कि यहां जो बाबा रहता है उसके साथ मैं चला गया और उसने जंगल में सभी जेवर उतर लिये। पिताजी को भी यही बात बतलायी वे बहुत घबरा गए और लोगों को चारों ओर उसे ढूंढंने भेजा। खुद भी गये पर उसका कुछ पता नहीं चला। लोगों को इतने में ही संतोष करना पड़ा कि जान बची लाखों पाये। यह घटना मेरी जिंदगी की एक बड़ी घटना है और गेरूवा वस्त्र धारण करके लोग कैसे कैसे काम करते हैं इसका अंदाज मुझे बचपन में ही लग गया था। तब मेरी बड़ी माँ (काकी) का दु:ख मुझे याद आता है वे मुझे देखकर मुझे गोद में बिठाकर पहले तो कुछ सिसकी फिर छाती से लगा लिया। वे दो तीन घंटे चुप बैठी रहीं कोई कुछ पूछता था तो कुछ भी जवाब नहीं देती थीं कुछ दिनों के बाद वे कहती थीं कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें मेरे पास धरोहर रखा था और जिस विश्वास से रखा था वह सब टूट गया। यद्यपि इस संबंध में उनसे किसी ने कुछ भी नहीं कहा था । मैंने अपने तथा अपने परिवार के बारे में पहले जो लिखा उसे पूरा करने हेतु कुछ और बाते लिखना जरूरी समझता हूं। मेरे दादा मोहन लाल अपने पिता के अकेले पुत्र थे। उनके पास बहुत जमीन जायदाद थी दो ग्रामों में खेती व मालगुजारी थी बरबंदा तथा पलारी ग्रामों में करीब 18-19 सौ एकड़ जमीन थी। कुछ में खेती करते थे और कुछ पड़ती पड़ी रहती थी। मेरे दादा ने पलारी में कई लोगों को जो कि उनसे किसी न किसी रूप में संबंधित थे 10 एकड़ से 30 एकड़ जमीन मुफ्त में दी तथा उनके नाम पर चढ़ा दिया। बरबंदा हमारे पुरखों का ग्राम था जिसे शायद हमारे दादा के दादा ने अपने हिस्से में पाया था बाद में हमारे दादा के दादा ने पलारी को खरीदा। लोगों का कहना है पलारी ग्राम को सिर्फ उन दिनों 100) में खरीदा! उस वक्त रूपए की कीमत भी बहुत थी। गाँव जंगल था 25-20 लोगों की बस्ती थी। कुल मिलाकर गांव में हमारे ही परिवार के लोगों की बस्ती थी। परिवार के लोगों ने दूसरों को जमीन दे दे देकर बसाया। एक अंदाज के अनुसार ऐसा लगता है कि पलारी ग्राम में हमारा परिवार करीब 150 से 200 वर्षों पूर्व आया, इससे पहले वे बरबंदा में थे। वहां परिवार कब से था मैं अंदाज नहीं कर सकता। हमारे इस परिवार में लगातार चार वंश में एक ही लड़का होता रहा। इसीलिए इतनी जमीन एक साथ हमारे दादा मोहनलाल के पास रही। दादा के 6 लड़के थे एक जो छोटे थे रामलाल उनकी मृत्यु बिना बाल बच्चों के जवानी में ही हो गई और एक लड़का बंशीलाल की एक लड़की थी पर उनकी भी जवानी में ही मृत्यु गो गई । इन्हीं बंशीलाल की पत्नी ने मुझे अपने पुत्र के समान मेरा लालन पालन किया। मेरी पढ़ाई के बारे में पिता जी को हमेशा बहुत ज्यादा चिंता रहती थी। चौथी हिन्दी पास करने के बाद (जब तक मैं अपने बड़े पिता सदाराम जी के ही यहां रहता रहा) मुझे 2-4 माह के लिए रायपुर अंग्रेजी स्कूल में भेजा पर फिर वहां से मुझे एक संस्था जो पं. माखनलाल जी चतुर्वेदी खंडवा वाले (महान कवि तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी) की संस्था सेवा सदन हिरनखेड़ा ग्राम जो कि होशंगाबाद के इटारसी स्टेशन के पास जंगल में है, पढऩे भेज दिया गया, यह सोच कर कि मुझे स्वदेशी शिक्षा मिलेगी तथा 4 साल में मैट्रिक भी कर लूंगा। पं. रविशंकर शुक्ला के साथ पं. माखनलाल जी चतुर्वेदी हमेशा पिताजी के पास पलारी आते थे क्योंकि स्वराज्य के आंदोलन में जितने भी जिले व प्रांत के नेता गण थे वे सब सन् 1921 से ही हमारे पिता व बड़े दादा सदाराम जी के पास आते जाते थे। हमारे खानदान की रायपुर जिला व दुर्ग जिला में काफी प्रतिष्ठा थी स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को हमारा परिवार हर प्रकार से मदद किया करता था। हमारे यहां पं. सुंदरलाल राजिमवाले तथा पं. सुंदरलाल तपस्वी (भारत में अंग्रेजी राज्य लिखने वाले जो अभी इलाहाबाद में रहते हैं) । तथा खांडेकर वकील सागर वाले आदि अनेक प्रान्तीय नेता हमेशा घर आते थे इन लोगों को हमारे पिताजी सभा, जुलूस, आंदोलन आदि करने में देते थे। मुझे इन सबके घर आने- जाने का ज्ञान है क्योंकि 1928 तक तो मैं पलारी व रायपुर में रहा। स्वतंत्रता आंदोलन के सिलसिले में बैनर्जी वकील तथा पं. लक्ष्मीप्रसाद तिवारी भी अक्सर आते थे अब दोनों नहीं रहे। हाँ इतना जरूर रहा कि मेरे पिताजी खुद स्वतंत्रता आंदोलन में कभी शामिल नहीं हुए पर वे आंदोलनकारियों का हर प्रकार से सहयोग राजनैतिक व सामाजिक कार्यों में देते रहे। बलौदाबाजार तहसील में कांग्रेस का सबसे बड़ा अड्डा अगर कोई था तो वह पलारी ग्राम था। राजनीति की बात को आगे फिर कभी लिखूंगा इसे यही छोड़कर मैं अपनी जिंदगी की कुछ और बातें लिख डालूं- जब मैं हिरनखेड़ा गांव सेवा सदन संस्था में पढऩे गया तो हमारे एक मुनीम नत्थूलाल देवांगन के पिता मुझे पहुँचाने गये वे वहाँ एक दिन ठहरकर आ गये मैं तब लगभग 10 वर्ष का था वहां 20-25 विद्यार्थी थे। मेरे जाने के कुछ दिनों बाद मेरा भांजा द्वारका प्रसाद सैहावाले, वीर सिंह बंरछिहा, पलारी के प्यारेलाल त्रिपाठी के लड़के, हथबन के ज्वालाधर शर्मा, कुकरडी के मुरितराम मिश्रा, कसडोल के भूपेन्द्रनाथ मिश्रा लकडिय़ां के जगदम्बा प्रसाद तिवारी आदि लगभग15-16 लडके छत्तीसगढ़ के भी वहां पढऩे गये थे। होशंगाबाद इटारसी के आसपास के 10-12 लड़के थे। वहां जंगल था हम झोपड़ी में रहते थे वहीं एक आम व बीही का बगीचा था जहां हम लोग चोरी करके आम व बीही खाया करते थे। वहां हमें पढ़ाने वाले रामदयाल चतुर्वेदी, हरिप्रसाद चतुर्वेदी दोनों पं. माखनलाल जी के सगे भाई थे तथा एक दो और शिक्षक थे। वहां ठंड खूब पड़ती थी। पर जंगल का अलग ही आनंद था। मैंने वहीं के तालाब में पहले पहल तैरना सीखा। वहां पर 4 बजे सुबह से उठकर दौडऩा पड़ता था (नहीं तो मार पड़ती थी) मैं तथा भूपेन्द्रनाथ मिश्र ही पूरे 4 वर्ष वहां रहे बाकी सब एक दो साल बाद वापस आ गये। विष्णुदत्त ( मेरा चचेरा भाई) भी वहां गया पर वह भी 2,4 माह बाद वापस आ गया। मैंने दो वर्षों में मिडिल बोर्ड से खंडवा गवर्नमेन्ट हाई स्कूल में परीक्षा दिला कर पास कर लिया। दो वर्ष के बाद बनारस से मैट्रिक में बैठा तो मैट्रिक में फेल हो गया जब फिर से मैंने हिरनखेड़ा जाने की अनइच्छा प्रगट की तो फिर बनारस ही भेज दिया गया वहां दो वर्षों तक रहा। बनारस की जिंदगी पढ़ाई व दिगर वातावरण के ख्याल से मेरे जिंदगी का (विद्यार्थी) सबसे अच्छा रहा ऐसा कहूँगा। मैं बहुत दुबला पतला था तो मुझे वहां दंड, बैठक, दौडऩा, तैरना आदि ज्यादा कराया जाता था। मैं गंगा में खूब तैरता था तथा दंड बैठक भी करता था। वहां मैं खूब खाना खाता था, सब हजम हो जाता था। बनारस में कमच्छा एक मुहल्ला है जहां बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी सेंट्रल हिंदू स्कूल था वह भी राजनीति का केन्द्र था क्योंकि पं. मदन मोहन मालवीय जी वहां के सर्वेसर्वा थे। एक दिन की बात याद है शायद सन् 32 या 33 का साल होगा पं. जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी में भाषण देने आये हम सब कालेज व स्कूल के लड़के शिवाजी हाल गये। हम सब लड़के जवाहरलाल जी का भाषण सुनते ही नहीं थे हल्ला करने लगे। जवाहरलाल जी गुस्से में थे कहा कि मैं बिना भाषण दिये यहां से हटूंगा ही नहीं। शिवाजी हाल बहुत बड़ा था एक साथ करीब 5 हजार लोग बैठ सकते थे। पं. मालवीय जी अध्यक्षता कर रहे थे। उन्हें खड़ा होना पड़ा और जब उनने सिर्फ दो शब्द कहे कि इन्हें हमने मेहमान के बतौर बुलाया है क्यों हल्ला करते हो तो सब चुप हुए और फिर शांति से भाषण हुआ। मालवीयजी का वहां बहुत ज्यादा आदर तथा प्यार था। उनकी बात को कोई भी टाल नहीं सकता था। मुझे अभी भी गर्व है कि मैंने उनकी संस्था से मेट्रिक किया। मेरी जिंदगी में सेवा सदन की 4 वर्षों की शिक्षा तथा बनारस के दो वर्षों की शिक्षा ने सार्वजनिक कार्य तथा स्वतंत्र विचारधारा बनाने में बहुत अधिक प्रभाव डाला। मैं सेवासदन हिरनखेड़ा भी दो वर्षों के बाद अकेला जाने आने लगा था। घर से कोई साथ नहीं आने- जाने तथा 12 वर्ष की उम्र से ही रेल में अकेले जाने में जरा भी कोई भय नहीं रहता था। (उन दिनों रेल में अधिकारियों का व्यवहार ठीक रहता था तथा कोई ज्यादा स्टेशनों या रास्ते में कोई गड़बड़ी भी नहीं होती थी। फिर मैं दस वर्ष जबलपुर सिटी कालेज में पढ़ा वहां इंटर में फेल हो गया तो वहां से नागपुर सिटी कालेज से इंटर किया और फिर मॉरिस कालेज नागपुर से बी.ए. पास किया। नागपुर में भी मेरी जैसी पढ़ाई हुई तथा जो सोसाइटी वहां मेरी रही वह भी मुझे हमेशा याद रहेगी। वहां होस्टल में रहता था वहां जो भी साथी थे सब प्रेम से रहते थे। उन दिनों के मेरे क्लास के साथी आज बड़े अफसर हंै। द्विवेदी हाई कोर्ट जज हैं गोरेलाल शुक्ला,भोपाल में सेक्रेट्ररी हैं। रमाप्रसन्न नायक चीफ सेक्रेट्ररी म.प्र. के थे अब दिल्ली में हैं। इन सबसे मेरा संबंध अभी भी बहुत अच्छा है। इनके अलावा बहुत से साथी डिस्ट्रिक्ट और शेषन जज हैं जैसे गन्नू तिवारी, मिश्रा आदि। नागपुर में ही मैंने एल.एल.बी. किया। इस प्रकार से मैं 5 वर्षों तक नागपुर में रहा। जब मैं ला की पढ़ाई कर रहा था तब सन् 1942 में चारों ओर आंदोलन हुआ और उस आंदोलन और गोली बारी में एक दिन एग्रीकल्चर कालेज के बोर्डिंग में जहां मैं खाना खाता था फंस गया। पुलिस ने बोर्डिंग में धावा बोला कि यहां से पत्थर बाजी होती है। हम भी पकड़े गये और एक वर्ष के लिए परीक्षा में बैठने से वंचित कर दिये गये। हमें जेल तो नहीं भेजा गया पर थाने में 4-6 घंटा जरूर बिठा कर रखा। पुलिस उस वक्त आज कल सरीखा लड़कों से खराब व्यवहार नहीं करती थी हमें ठीक प्रकार से बोर्डिंग से ले गये, सब नाम पता लिखकर कुछ देर बैठाकर कि अब गड़बड़ न करना कहकर छोड़ दिया। इसी साल पिताजी भी बहुत बीमार रहने लगे मैं भी कालेज से अलग था क्योंकि परीक्षा में तो बैठ नहीं सका था इसलिए लगातार पिताजी के ही साथ एक साल रहा। मेरी शादी सन् 1938 में हो गई थी। कौशिल्या (पहली पत्नी) और मौसी माँ भी पिताजी के साथ ही रहते थे। पिताजी का इलाज कई स्थानों पर हुआ। करीब 4-6 माह तो हसदा में रहकर वहां के वैद्य से इलाज कराया। तिल्दा अस्पताल में 4-6 माह रहकर इलाज हुआ, फिर रायपुर अस्पताल में कुछ दिन रहे। वहाँ उन्हें कुछ अच्छा लगा। रायपुर पुराने अस्पताल के एक अंग्रेज सी.एस. एलेन ने मुझे प्रेम से सलाह दिया कि वे मेरे पिता जी को बिल्कुल अच्छे कर देवेंगे। फिर अस्पताल में करीब 7-8 माह रहकर इलाज हुआ और वे अच्छे होकर गये। इस प्रकार से उनकी बीमारी की वजह से बिना पढ़े ही 1943 में मैंने परीक्षा दिलाई। पिताजी के मन के खिलाफ मैं नागपुर परीक्षा देने चला गया क्योंकि मालूम नहीं उन्हें ऐसा लगता था कि मैं उन्हें एक घंटा भी न छोडूं। बार-बार वे मुझे पूछते ही रहते थे। उनके प्रेम को देखकर मैं भी एक दो घंटे घूमकर फिर उनके पास आ जाया करता था। भले ही कुछ काम नहीं रहता था। मुझे परीक्षा देने के लिए नागपुर भेजने का श्रेय डोमार सिंह जी जरवेवाले को हैं क्योंकि वे ही ऐसे व्यक्ति थे जो जोर देकर कुछ भी बात कहते थे। उनकी वजह से ही मुझे नागपुर भेजने के लिए तैयार हुए। नहीं तो सब जानते हैं कि पिताजी कितने गुस्सैले तबियत के थे। उनसे बात करना कितना कठिन होता था। उनका रूतबा घर तथा बाहर व दिगर सभी तरफ के ग्रामों में था। ऑफिसर वर्ग तो कभी हमारे घर उनके डर से आते तक नहीं थे क्योंकि किसी भी ऑफिसर से वे सीधे बात नहीं करते थे। स्वतंत्रता आंदोलन से संबंध होने के कारण लोगों में उनका बड़ा प्रभाव भी था। जब मैं 1944 में एलएलबी करके नागपुर से आया तो थोड़े दिन के बाद पिताजी ने मुझे वकालत के लिए बलौदाबाजार भेज दिया। उन्होंने हमेशा मुझे गांव से व खेती से अलग रखा। मेरे वकील बनने के पहले से ही दो प्लाट सन् 1943 में बलौदाबाजार में ले रखा था जिसमें एक में मकान है और एक को डॉ. यदु को बेच दिया। मैंने जब 1944 से बलौदाबाजार में वकालत शुरु की। साथ ही जल्दी ही मैं सार्वजनिक कार्यों में लग गया। मैं बलौदा बाजार तहसील कांग्रेस कमेटी का प्रेसीडेन्ट चुन लिया गया। क्योंकि पं. लक्ष्मी प्रसाद तिवारी जो एक बुजुर्ग व्यक्ति कांग्रेस के पुराने आदमी तथा अध्यक्ष भी थे वे मुझे पहले से घरेलु संबंध के कारण ज्यादा चाहते थे। जबकि चक्रपाणी शुक्ला के चाचा बलभद्र शुक्ला जी ने गुपचुप विरोध किया पर किसी ने उनकी न सुनी। इस समय तक कांग्रेसियों में किसी प्रकार की गुटबाजी नहीं थी और सब चाहते थे कि अच्छे लोग कांग्रेस में आये। उस वक्त स्व. बैनर्जी वकील बलौदाबाजार में कांग्रेस के मुखिया थे पर वे बलौदाबाजार छोड़कर रायपुर चले गये थे इसलिए शिक्षित वर्ग खासतौर से किसी वकील या डॉक्टर को कांग्रेसी अपने साथ रखना पसंद करते थे क्योंकि जो जेल यात्री कांग्रेस आंदोलन में थे वे सभी करीब-करीब ग्रामीण क्षेत्र के थे और उन पर हमारे खानदान का अच्छा प्रभाव था। इस तरह मैं जल्दी ही राजनीति में आगे आ गया उसका श्रेय मैं अपने खानदान तथा पिताजी को ही दूंगा, भले ही उनने मेरे लिए न कभी एक शब्द कहा और न कभी भी किसी पद या चुनाव के वक्त मेरे लिए घर से बाहर निकले।

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