शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
किश्त तीन
हिरनखेड़ा सेवा सदन के वे दिन वकालत और राजनीति
सेंट्रल जेल रायपुर, 16 जुलाई 1975
हिरनखेड़ा सेवा सदन के वे दिन वकालत और राजनीति
सेंट्रल जेल रायपुर, 16 जुलाई 1975हिरनखेड़ा सेवा सदन (होशंगाबाद के पास) जो पं. माखनलाल चतुर्वेदी की संस्था थी, में मुझे चौथी (हिन्दी) पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए भेजा गया, क्योंकि मेरे पिताजी के अनुसार वहाँ पर स्वराज्य अंदोलन तथा स्वदेशी शिक्षा राष्ट्रीय विचार धारा के आधार पर होती थी। वहाँ हम सब को खादी पहनने को कहा जाता था तथा दिनचर्या के सभी काम अपने हाथ से करने के लिए प्रोत्साहित करते थे।
यह संस्था जंगल के बीच स्थित थी। हिरनखेड़ा गाँव के एक मालगुजार जो कुर्मी जाति के थे, ने इस संस्था के लिए जमीन दान में दी थी। हमें संस्था में खाने के लिए सुबह नाश्ता नहीं मिलता था अधिकतर रोटी ही खाया करते थे। मेरे लिए पिता जी ने अलग से नाश्ते का इंतजाम करने को जरूर कहा पर वहाँ किसी के साथ भेदभाव का बर्ताव नहीं किया जाता था, सबको सामूहिक रूप से रहना पड़ता था अत: अलग से एक दो के लिए नाश्ते की व्यवस्था संभव नहीं था। वहाँ हम सब अपना कपड़ा अपने हाथ से धोते थे, नहाने का पानी भी कुएँ से स्वयं निकालते थे तथा अपने रहने का स्थान यानी अपनी कु टिया भी सब मिलकर साफ करते थे। इस तरह हर प्रकार से हमें स्वावलंबी बनने की शिक्षा दी जाती थी। प्रतिदिन सुबह चार बजे राष्टï्रीय प्रार्थना होती थी। सुबह इतनी अधिक ठंड होती थी कि उठने में मुझे आलस आता था। पर मजबूरी थी क्योंकि ऐसा न करूँ या कोई इस नियम का पालन न करें तो बेंत की मार खानी पड़ती थी। रोज सुबह पंडित जी को प्रणाम करने भी जाना पड़ता था जबकि पंडित जी अपनी कुटिया में मजे से रजाई ओढ़ के सोये रहते थे। वे सबको आशीर्वाद देते थे और ध्यान भी रखते थे कि कौन उनके पास आया और कौन नहीं आया, क्योंकि वे सबकी आवाज पहचानते थे। उस वक्त तो वे कुछ नहीं कहते थे पर बाद में अच्छी मरम्मत होती थी। खाने को भी साधारण भोजन मिला करता था लेकिन पिताजी ने, मुझे दूसरों से दुगुना घी दिया जाय इसकी व्यवस्था कर दी थी, जो कि मुझे मिलता भी था। मुझे उस घी का स्वाद अभी भी याद है। वहाँ का घी बड़ा शुद्ध और स्वादिष्टï होता था। मैं अपने घर पलारी आता था तो घर का घी मुझे उतना अच्छा नहीं लगता था, मालूम नहीं क्या बात थी?
हम वहाँ जंगल के बीच रहते थे। रोज जंगली सुअर हमारे कमरों के आसपास रात में घुमते रहते थे कभी- कभी उनके बच्चों को हम लोग पकड़ लेते थे तो वे (सुअर) हमारा कमरा घेर लेते थे तब हमें उनके बच्चे को छोडऩा पड़ता था। बड़े- बड़े दाँत वाले सुअर खतरनाक थे। चूंकि सेवा सदन जंगल के पास स्थित था इसलिए आस- पास हमेशा साँप, बिच्छू का भी भय बना रहता था, दो- चार दिनों में एक दो साँप हम लोगों को मारना ही पड़ता था। हमारे पास हॅाकी स्टिक रहती थी, खेलने के लिए उससे ही साँपों को मारने और कुत्तों को भगाने का काम लेते थे। यह सब हमारी दिनचर्या का अंग बन गया था इसलिए हमें डर नहीं लगता था, इन सबकी आदत पड़ गई थी और हमें बहुत मजा आता था। हममें से बहुत से विद्यार्थियों को हिन्दी बोलना नहीं आता था क्योंकि हम सब गाँव से गये थे। अत: दूसरे विद्यार्थी हमारी भाषा सुनकर हँसते थे।
इन खट्टी- मीठी यादों के साथ हिरनखेड़ा में चार वर्षों का जो समय मैंने बीताया वह कई अर्थों में मेरे लिए बहुत उपयोगी रहा। मेरे भविष्य के लिए, सामाजिक व राजनैतिक नींव वहाँ रहने से ही पड़ी। बाहर रहकर पढ़ाई करने से स्वावलंबी बनने में सहायता तो मिली ही साथ ही घर के लोगों से अलग, अकेले रहने की आदत भी पड़ी। उन दिनों मेरे बचपन के जो साथी थे उसने आज भी आत्मीयता बनी हुई है। कुछ तो अभी भी हैं कुछ स्वर्ग सिधार गये हैं, उनकी याद हमेशा आती है। हम सब हिरनखेड़ा में प्रेम से रहते थे। हमने अपने बचपन का एक अच्छा समय साथ में बिताया था।
मैं साल में एक बार घर आता था। परंतु एक बार बीच में ही घर आ गया तो पिताजी बहुत नाराज हुए और मुझे घर में घुसने नहीं दिया। जब काकाजी (बलीराम- पिताजी के छोटे भाई) तथा बड़े पिताजी सदारामजी (पिताजी के बड़े भाई) को पता चला तो वे दुखी हुए और मुझे अपने पास छिपा कर रखा। जब पिताजी का गुस्सा शांत हो गया तब मैं घर गया। इन सबके बावजूद मुझे याद नहीं है कि पिताजी ने मुझे अपने सामने खड़ा करके मेरे प्रति कभी गुस्सा किया हो या डांट लगाई हो। कभी कुछ कहना भी होता था तो दूसरों के जरिये या मेरी गैरहाजरी में। बाद में जब मैं पढ़ाई पूरी कर वकालत करने लगा तब मुझे महसूस हुआ कि वे जो भी कहते थे मेरे हित के लिए कहते थे। लोगों ने यह भी बताया कि बाद में उन्हें बहुत दु:ख होता था तथा कभी- कभी उनके आँसू भी निकाल आते थे।
पिताजी ने मुझे आगे बढ़ाने में, चाहे वह पढ़ाई हो, सामाजिक कार्य हो, घर का काम हो या राजनीति हमेशा प्रोत्साहित किया, किसी भी कार्य के लिए बाधा नहीं डाली तथा दिल खोलकर अपना पूरा प्यार दिया। अब जबकि वे नहीं हैं, मुझे लगता है काश वे होते तो मुझे तथा मेरे परिवार को देखकर कितना सुख व आनंद का अनुभव करते, मैं उस पल को लिखने में असमर्थ हूं। मैं सिर्फ अनुभव कर सकता हूं तथा दिल को थाम कर रह जाता हूँ। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। यही कहकर चुप बैठ जाता हूँ कि ऐसा पिता सभी को मिले यही कामना है मेरी।सेवा सदन (होशंगाबाद के पास) जो पं. माखनलाल चतुर्वेदी की संस्था थी, में मुझे चौथी (हिन्दी) पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए भेजा गया, क्योंकि मेरे पिताजी के अनुसार वहाँ पर स्वराज्य अंदोलन तथा स्वदेशी शिक्षा राष्ट्रीय विचार धारा के आधार पर होती थी। वहाँ हम सब को खादी पहनने को कहा जाता था तथा दिनचर्या के सभी काम अपने हाथ से करने के लिए प्रोत्साहित करते थे।
यह संस्था जंगल के बीच स्थित थी। हिरनखेड़ा गाँव के एक मालगुजार जो कुर्मी जाति के थे, ने इस संस्था के लिए जमीन दान में दी थी। हमें संस्था में खाने के लिए सुबह नाश्ता नहीं मिलता था अधिकतर रोटी ही खाया करते थे। मेरे लिए पिता जी ने अलग से नाश्ते का इंतजाम करने को जरूर कहा पर वहाँ किसी के साथ भेदभाव का बर्ताव नहीं किया जाता था, सबको सामूहिक रूप से रहना पड़ता था अत: अलग से एक दो के लिए नाश्ते की व्यवस्था संभव नहीं था। वहाँ हम सब अपना कपड़ा अपने हाथ से धोते थे, नहाने का पानी भी कुएँ से स्वयं निकालते थे तथा अपने रहने का स्थान यानी अपनी कु टिया भी सब मिलकर साफ करते थे। इस तरह हर प्रकार से हमें स्वावलंबी बनने की शिक्षा दी जाती थी। प्रतिदिन सुबह चार बजे राष्टï्रीय प्रार्थना होती थी। सुबह इतनी अधिक ठंड होती थी कि उठने में मुझे आलस आता था। पर मजबूरी थी क्योंकि ऐसा न करूँ या कोई इस नियम का पालन न करें तो बेंत की मार खानी पड़ती थी। रोज सुबह पंडित जी को प्रणाम करने भी जाना पड़ता था जबकि पंडित जी अपनी कुटिया में मजे से रजाई ओढ़ के सोये रहते थे। वे सबको आशीर्वाद देते थे और ध्यान भी रखते थे कि कौन उनके पास आया और कौन नहीं आया, क्योंकि वे सबकी आवाज पहचानते थे। उस वक्त तो वे कुछ नहीं कहते थे पर बाद में अच्छी मरम्मत होती थी। खाने को भी साधारण भोजन मिला करता था लेकिन पिताजी ने, मुझे दूसरों से दुगुना घी दिया जाय इसकी व्यवस्था कर दी थी, जो कि मुझे मिलता भी था। मुझे उस घी का स्वाद अभी भी याद है। वहाँ का घी बड़ा शुद्ध और स्वादिष्ट होता था। मैं अपने घर पलारी आता था तो घर का घी मुझे उतना अच्छा नहीं लगता था, मालूम नहीं क्या बात थी?
हम वहाँ जंगल के बीच रहते थे। रोज जंगली सुअर हमारे कमरों के आसपास रात में घुमते रहते थे कभी- कभी उनके बच्चों को हम लोग पकड़ लेते थे तो वे (सुअर) हमारा कमरा घेर लेते थे तब हमें उनके बच्चे को छोडऩा पड़ता था। बड़े- बड़े दाँत वाले सुअर खतरनाक थे। चूंकि सेवा सदन जंगल के पास स्थित था इसलिए आस- पास हमेशा साँप, बिच्छू का भी भय बना रहता था, दो- चार दिनों में एक दो साँप हम लोगों को मारना ही पड़ता था। हमारे पास हॅाकी स्टिक रहती थी, खेलने के लिए उससे ही साँपों को मारने और कुत्तों को भगाने का काम लेते थे। यह सब हमारी दिनचर्या का अंग बन गया था इसलिए हमें डर नहीं लगता था, इन सबकी आदत पड़ गई थी और हमें बहुत मजा आता था। हममें से बहुत से विद्यार्थियों को हिन्दी बोलना नहीं आता था क्योंकि हम सब गाँव से गये थे । अत: दूसरे विद्यार्थी हमारी भाषा सुनकर हँसते थे।
इन खट्टी- मीठी यादों के साथ हिरनखेड़ा में चार वर्षों का जो समय मैंने बीताया वह कई अर्थों में मेरे लिए बहुत उपयोगी रहा। मेरे भविष्य के लिए, सामाजिक व राजनैतिक नींव वहाँ रहने से ही पड़ी। बाहर रहकर पढ़ाई करने से स्वावलंबी बनने में सहायता तो मिली ही साथ ही घर के लोगों से अलग, अकेले रहने की आदत भी पड़ी। उन दिनों मेरे बचपन के जो साथी थे उसने आज भी आत्मीयता बनी हुई है। कुछ तो अभी भी हैं कुछ स्वर्ग सिधार गये हैं, उनकी याद हमेशा आती है। हम सब हिरनखेड़ा में प्रेम से रहते थे। हमने अपने बचपन का एक अच्छा समय साथ में बिताया था।
मैं साल में एक बार घर आता था। परंतु एक बार बीच में ही घर आ गया तो पिताजी बहुत नाराज हुए और मुझे घर में घुसने नहीं दिया। जब काकाजी (बलीराम- पिताजी के छोटे भाई) तथा बड़े पिताजी सदारामजी (पिताजी के बड़े भाई) को पता चला तो वे दुखी हुए और मुझे अपने पास छिपा कर रखा। जब पिताजी का गुस्सा शांत हो गया तब मैं घर गया। इन सबके बावजूद मुझे याद नहीं है कि पिताजी ने मुझे अपने सामने खड़ा करके मेरे प्रति कभी गुस्सा किया हो या डांट लगाई हो। कभी कुछ कहना भी होता था तो दूसरों के जरिये या मेरी गैरहाजरी में। बाद में जब मैं पढ़ाई पूरी कर वकालत करने लगा तब मुझे महसूस हुआ कि वे जो भी कहते थे मेरे हित के लिए कहते थे। लोगों ने यह भी बताया कि बाद में उन्हें बहुत दु:ख होता था तथा कभी- कभी उनके आँसू भी निकाल आते थे।
पिताजी ने मुझे आगे बढ़ाने में, चाहे वह पढ़ाई हो, सामाजिक कार्य हो, घर का काम हो या राजनीति हमेशा प्रोत्साहित किया, किसी भी कार्य के लिए बाधा नहीं डाली तथा दिल खोलकर अपना पूरा प्यार दिया। अब जबकि वे नहीं हैं, मुझे लगता है काश वे होते तो मुझे तथा मेरे परिवार को देखकर कितना सुख व आनंद का अनुभव करते, मैं उस पल को लिखने में असमर्थ हूं। मैं सिर्फ अनुभव कर सकता हूं तथा दिल को थाम कर रह जाता हूँ। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। यही कहकर चुप बैठ जाता हूँ कि ऐसा पिता सभी को मिले यही कामना है मेरी।
बचपन के दोस्त और घुड़सवारी का शौक
सेवा सदन हिरनखेड़ा में पढऩे के दौरान की कुछ ऐसी बातें आज याद आ रहीं हैं जिसे मैं कभी भूल नहीं पाता। जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ कि वहाँ रायपुर जिले से बहुत से साथी एक साथ रहते थे एक दिन सुबह करीब 7-8 बजे हम कुछ साथी एक साथ दौडऩे या खेलने गये थे, हमारे साथ लकडिय़ा गाँव का रहने वाला जगदम्बा प्रसाद तिवारी जो अब बसंत कुमार तिवारी कहलाने लगा भी साथ में थे। वह मुझसे शरीर में तगड़ा था तथा खेलकूद, तैरने आदि में मुझसे आगे ही रहता था। वह दातून तोडऩे के लिए एक नीम के पेड़ पर काफी ऊपर तक चढ़ गया। अचानक मैंने देखा कि वह नीचे जमीन पर गिर गया है। हम लोगों की उम्र तब लगभग 12 साल रही होगी। मैं एकदम घबरा गया वह थोड़ा बेहोश सा लगा पर कुछ चोट नहीं लगी, फिर उठ कर धीरे- धीरे साथ चला आया वह जहाँ से गिरा था वह लगभग 20 -22 फुट ऊँचाई से कम नहीं था। ईश्वर ने उस दिन साथ दिया मेरे प्यारे साथी को ज्यादा चोट नहीं आई और हम सकुशल संस्था वापस आ गये। मुझे वह घटना आज भी याद है पर उसे याद है या नहीं कह नहीं सकता। हम लोगों ने डर कर पंडित जी से यह बात नहीं बतलाई थी।
जब भी मैं गर्मी की छुट्टिïयों में पलारी आता था- उस समय दीवाली, दशहरा में आना नहीं होता था- तो अधिकांश समय खेलकूद में ही बीताता था । सुबह- सुबह पलारी के कुछ लड़कों को साथ लेकर बालसमुंद जाता और वहां घंटे - दो घंटे खूब तैरता। यह सब मैंने करीब 14-15 साल कीउम्र तक किया। उसी दौरान मैंने घर में पिताजी की लाल घोड़ी, जो बड़ी तेज तथा बदमाश थी, जिस पर सिर्फ पिताजी ही सवारी किया करते थे, की भी घुड़सवारी करने लगा। मैं उस घोड़ी में दो माह तक रोज सुबह उठकर घुड़सवारी करता था। सहीश से कहकर उसे अस्तबल से बाहर निकलवाता और घर में बिना किसी को बताए चुपचाप निकल पड़ता था, क्योंकि घर के लोग उस घोड़ी पर बैठने से मना करते थे, कि घोड़ी बदमाश है गिरा देगी, मत बैठना। सच भी था वह घोड़ी किसी को अपनी पीठ पर बैठने नहीं देती थी। पहले तो मैं उसकी आंख में टोपा बांध देता था फिर एक ऊँचे स्थान पर ले जाता था और कूदकर बैठ जाता। वह दोनों पैर से कूदती थी। पर मैं एक बार बैठ गया तो फिर मुझे डर नहीं लगता था। वह बड़ी तेजी से दौड़ती थी। मैं चाल से दौड़ाना तो जानता नहीं था अत: उसे पल्ला दौड़ाता था इसलिए वह सीधे खेतों की मेढ़ों को कूदती हुई छलांग मारती बहुत तेजी से भागती थी। इस तरह से उसके दौडऩे से मेरा शरीर भी नहीं हिलता था। इतनी तेज भागने वाली बहुत कम घोडिय़ाँ होती हैं, मुझे उसपर घुड़सवारी करने में बड़ा आनंद आता था। कुछ दिनों के बाद घर में सब जान गये तब फिर मुझे उस पर बैठने से मना भी नहीं किया। अपने इस घुड़सवारी के शौक के कारण ही, जब भी गाँव में किसी की अच्छी बड़ी घोड़ा- घोड़ी आती मैं बैठने की जरूर इच्छा करता और कुछ देर बैठकर जरूर मजा ले लेता था। एक वक्त की बात है कि हम बहुत से लोग गर्मी की छुट्टïी में गाँव आये और (तुरतुरिया पलारी गाँव के पास का पर्यटन स्थल)जाने की इच्छा व्यक्त की, पर गाड़ी से नहीं, घोड़े से तब सबके लिए करीब 8-10 घोड़े बुलवाये गए । मैंने पास के गाँवदतान के एक घोड़े की बहुत तारीफ सुनी थी वह भी लाया गया था। उसे सुबह जब पानी पिलाने जब सहीश ले जा रहा था तो मैं ले चलता हूँ कहकर उसपर बैठ गया। मेरे बैठते ही वह घोड़ा अड़ गया मैंने खूब पैर मारा तब कहीं वह रास्ते में आया मैंने भी उसे खूब दौड़ाया। नये तालाब के पार के ऊपर बड़ी तेजी उसे दौड़ा रहा था तभी ठोकर खाकर घोड़े सहित गिर गया। मैं पहले गिरा और मेरे ऊपर घोड़ा पर तालाब के पार में उतार होने से मैंने घोड़े को अपने छाती पर से लुढ़का दिया। वह दिन मेरी मौत का सा दिन था मालूम नहीं कैसे एकदम मुझे होश आया और मैंने अपने छाती पर हाथ रखके घोड़े को एकदम ढकेलकर सिर के ऊपर से लुढ़का दिया। मेरा चचेरा भाई विष्णुदत्त सब देख रहा था वह दौड़ा , मेरी पूरी पीठ भर छिल गई थीपर कोई अंदरूनी चोट नहीं लगी थी। चुपचाप घर आकर दवाई पीठ पर लगा लिया किसी (पिताजी) को मालूम नहीं होने दिया। पर गाँव में बात छिपती कहाँ हैं बाद में मालूम हुआ तो पिताजी बहुत नाराज हुए।
इसी तरह एक बार की और घटना है पलारी में ही मैं एक बदमाश घोड़े पर बैठकर बाहर गया मुझे तो इस तरह के घोड़े पर बैठने पर मजा आने लगा था पर बाहर जाकर घोड़े के साथ ऐसा गिरा कि मेरी टांग घोड़े के नीचे हो गई। मेरे घुटने में चोट आई और करीब 2 माह तक बहुत तकलीफ हुई। पिताजी को यह भी मालूम ही हो गया पर वे इस बार कुछ बोले नहीं क्योंकि वे जान गये थे कि अब मेरी आदत ही बदमाश किस्म के तेज घोड़ों पर बैठने की हो गई है।
एक घटना घोड़े को लेकर और याद आ रही है- जब मैं नागपुर में ला कॉलेज पढ़ रहा था तो कुछ घोड़े बेचने वाले वहीं पास में ठहरे थे। मेरे साथी की इच्छा हुई कि चलो इनसे यह कहकर घोड़े पर बैठें कि हमें खरीदना है। मेरा वह साथी मंडला के तहसीलदार का लड़का श्याम बिहारी शुक्ला था। हम दोनों दो घोड़ा लेकर दो चार दिन रोज दौड़ाने ले जाया करते थे। उसी समय मेरी इच्छा एक घोड़ी को खरीदने की हो गई। क्योंकि उन दिनों जो हमारे यहां घोड़ी थी वह शायद मर गई थी। मैंने 350 रू. में उसे खरीद लिया और घर पत्र लिख दिया कि एक अच्छा घोड़ा खरीदा हूँ इसे लिवा लो और पैसे भी भेज दो। पिताजी नाराज हुए पर काकाजी ने आदमी और पैसा भेज दिया यह कहते हुए कि उसे घोड़ों का शौक है यहाँ हमेशा बड़ा घोड़ा रहता था अब नहीं है खरीद लिया तो क्या हुआ। घोड़ी बहुत खूबसूरत थी थोड़े दिनों में वह कुछ बीमार सी दिखी तो पिताजी ने बाद में उसे बेच दिया था।
कॉलेज के बाद का सार्वजनिक जीवन
विद्यार्थी जीवन में मैं सन् 28-29 से लेकर 43-44 तक घर से बाहर रहने के कारण अपने गाँव और जिले में लोगों से अधिक परिचय न कर सका। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पिताजी का प्रभाव राजनैतिक सहयोगी तथा सार्वजनिक कार्यकर्ता के नाते रायपुर व दुर्ग जिले में काफी अच्छा था उसी का फायदा मुझे पढ़ाई करके लौटने के बाद मिला। उनकी ही बदौलत मैंने राजनैतिक क्षेत्र के लोगों के बीच जाना शुरू किया। वकालत करने के दौरान भी बहुत से लोगों से मेरे संबंध जुड़े।
उसके बाद के राजनैतिक व सार्वजनिक कार्यों में प्रोत्साहित करने का पूरा श्रेय स्व. डॉक्टर खूबचंद बघेल एवं ठा. प्यारेलाल सिंह को जाता है। उन्होंने मुझे राजनीति की अच्छी शिक्षा दी, मुझे बढ़ावा दिया तथा अपने पूर्ण विश्वास में लेकर बहुत सा कार्य मुझसे कराया और जिम्मेदारियाँ दीं। इन दोनों महान व्यक्तियों का मैं हमेशा ऋणी रहूंगा जिन्होंने मुझे हर कार्य के लिए अपने साथ रखा। इसी तरह स्व. ठाकुर निरंजन सिंह, (नर्सिंगपुर) का भी जो प्यार एवं सहयोग मिला वह भी नहीं भुलाया जा सकता। असेम्बली में तो मुझे उन्हीं की बदौलत कार्य करने का ज्यादा मौका मिला। उन्होंने ही मुझे सिखाया कि असेम्बली में कैसे कार्य करना चाहिए, कैसे प्रश्न पूछना चाहिए, किस प्रकार से बोला जाता है तथा असेम्बली के अंदर शासक दल को कैसे अड़चन में डाला जा सकता है। असेम्बली के कार्यों में मुझे स्व. ताम्रकर (दुर्ग) ने भी बहुत प्रोत्साहित किया। उन्होंने दो वर्षों में मुझे असेम्बली के अंदर ऐसा बना दिया कि जब कभी विरोधी दल के हमारे प्रमुख नेता गैरहाजिरी रहते थे तब मैं अकेला असेम्बली के सभी विषयों पर तथा बिलों पर जवाब देता था और विरोधी दल की कोई कमजोरी शासक दल को महसूस नहीं होने देता था।
स्वतंत्रता के बाद पहला चुनाव
सन् 1952 में जब स्वतंत्रता के बाद पहला चुनाव हुआ असेम्बली में मैं भी चुनकर गया। मेरे नेता ठा. प्यारेलाल सिंह जी थे और सामूहिक रूप से कांग्रेस विरोधियों का जो एक दल बना था उसके भी नेता ठाकुर साहब थे। इस पहले चुनाव में पुराने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जैसे स्व. डॉ. बघेल, ठा. निरंजन सिंह, स्व. ताम्रकार, प्रो. महेशदत्त मिश्र, ठा. प्यारेलाल सिंह आदि सभी किसान मजदूर प्रजा पार्टी के ही सदस्य थे, जनसंघ का कोई नहीं था। सोशलिस्ट पार्टी के सिर्फ 2 सदस्य थे तथा कुछ नाम छोटे-छोटे दल के थे जैसे राम राज्य परिषद तथा अन्य स्वतंत्र सदस्य। हम लोगों की संख्या तो कम थी पर असेम्बली में हमारा अच्छा दबका था। मैं पूरे विरोधी दल के चीफ का कार्य करता था।
विरोधीदल के नेता होने के कारण स्व. ठाकुर प्यारेलाल सिंह की, असेम्बली में अच्छी धाक तो थी ही साथ ही स्व. पं. रविशंकर शुक्ल जी भी उनकी इज्जत करते थे, उस दौर में उनके बीच कभी भी ऐसा मौका नहीं आया कि वे एक दूसरे पर ऐसी छींटा- कसी करें, जो ओछी हो, सम्मानित न हो तथा किसी की गरिमा को ठेंस पहुंची हो। उस दौरान सरकार व अविश्वास के प्रस्तावों पर जो चार्ज लगाए जाते थेे वे काफी तीखे होते थे तथा उनमें प्रामाणिकता रहती थी। अखबारों में तथा आम जनता में विरोधी दल के प्रति अच्छी भावना थी, उन्हें सभी जगह सम्मान मिलता था। मेरे लिए पढऩे लिखने तथा सीखने का यह बहुत ही अच्छा मौका था और मैंने अपने ढंग से इसका लाभ लिया। यह उसी वक्त की देन है कि मैं अभी तक राजनीति में कांग्रेस के खिलाफ टिक सका।
दो वर्ष बाद किसान मजदूर प्रजा पार्टी (के.एम.पी.पी.) को खत्म करके सोसलिस्ट पार्टी (एस.पी.) के साथ मिलकर एक नई पार्टी, प्रजा सोसलिस्ट पार्टी बनी लेकिन फिर सन् 62 में एस.पी. अलग होकर चुनाव लड़ी। उस समय पार्टी में जो भी मतभेद थे वह सिद्धांतों को लेकर कम नेतृत्व को लेकर ज्यादा था। प्रजा सोसलिस्ट पार्टी (पी.एस.आर.) में किसान मजदूर प्रजा पार्टी (के.एम.पी.पी.) तथा सोसलिस्ट पार्टी (एस.पी.) के अच्छे, पुराने विद्वान नेता थे पर उनमें आपस में मेल नहीं था और न वे पार्टी का अनुशासन मानते थे। आचार्य कृपलाणी को तथा स्व. आचार्य नरेन्द्र देव को वे इज्जत देते थे और उनकी सुनते थे पर बाकी कोई भी एक दूसरे को नहीं मानता था। जैसे अशोक मेहता, स्व. राममनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायणजी, इन तीनों में भी मतभेद था। इस तरह सोसलिस्ट पार्टी 1952 में चुनाव हार गई और पटवर्धन ने राजनीति से सन्यास ले लिया। दोनों आचार्य पार्टी को कुछ दिनों तक चलाते रहे। पर इन दोनों आचार्यों में भी सैद्धांतिकमतभेद थे। आचार्य कृपलाणी गांधीवादी नीति के ज्यादा समर्थक तथा यथार्थवादी थे और आचार्य नरेन्द्र देव कार्लमार्क्स की ओर ज्यादा झुके थे। आचार्य कृपलाणी साम्यवाद के बहुत ज्यादा कट्टïर विरोधी थे अत: उन्होंनें यह कहकर पार्टी से इस्तीफा दे दिया कि मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ पार्टी की आचार संहिता का पालन करना मेरी उम्र व विचार के विपरीत है पर मैं हमेशा पार्टी की मदद करूंगा, कांग्रेस का साथ कभी नहीं दूंगा।
मैं इन सब नेताओं में सबसे ज्यादा आचार्य कृपलाणी की विचारधारा से प्रभावित था तथा अभी भी उनकी विचारधारा को मैं मान्यता देता हूं। वे विलक्षण बुद्धि के थे तथा मिलजुलकर कार्य करने की उनकी शैली मुझे प्रेरणा देती थी।
मेरा जितना भी राजनैतिक अनुभव रहा है उससे मैं यही कहूँगा कि विरोधी दलों में एक दूसरों के प्रति जो कटुता रही वही हमारी (विरोधी दल की) कमजोरी रही है। उसी का नतीजा है कि लगातार गत 28-29 वर्षों से कांग्रेस हम पर हावी है और हम उसे शासन से अलग नहीं कर पा रहे हैं। अब देखना है कि विरोधी दलों को कुछ होश आया है या नहीं। यह कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इंदिरा गांधी ने हमें यह मौका दिया है कि हम मिलकर एक अच्छा विरोधी मोर्चा बनाएं ताकि कांग्रेस का (इंदिरा कांग्रेस) मुकाबला कर सकें। मैंने मोर्चा शब्द का उपयोग जानबूझ कर किया है क्योंकि असेम्बली में गत 20 वर्षों का मेरा जो अनुभव है उसमें मैंने देखा कि विरोधी दल आपस में व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिए ज्यादा झगड़ते हैं और उसको सिद्धांत का पुट देते हैं तथा अंदर ही अंदर अपने मन में बात रखते हैं, लेकिन हमारे जमीन से जुड़े कार्यकर्ता हैं जो ग्रामीण ब्लाक, जिला स्तर पर कार्य करते हैं वे भी अपने को एक दूसरे से कमजोर नहीं मानते पर अपने मन की बात मन में न रखकर साफ- साफ एक दूसरे के खिलाफ आ जाते हैं जो मेरे विचार में ज्यादा अच्छी बात है। इसलिए जब तक हम एक दूसरे दल के नजदीक नहीं आयेंगे, एक दूसरे की विचारधारा को नहीं समझेंगे तब तक हमें एक पार्टी बनाने में अड़चन होगी और अगर पार्टी बना भी लेते हैं तो फिर वही हालत होगी जो के.एम.पी.पी., एस.पी. पी.एस.पी. आदि पार्टियों की आज तक होती रही है। हमें ग्रामीण, जिला एवं ब्लाक स्तर पर ज्यादा मेल करने की जरूरत है तभी हम ऊपर असेम्बली तथा पर्लियामेन्ट में सफल होंगे।
आदर्श को लेकर जो बातें होती है वह सिर्फ दिखावे की हैं असल में व्यक्तिगत या कौन से दल की किस नेता की ज्यादा चलेगी इस पर ज्यादा झगड़ा रहता है। संविदा सरकारें जो फेल हुई उसका मुख्य कारण यही है। वहाँ भी किसी बड़ेे सिद्धांत का झगड़ा नहीं था आपसी तालमेल व प्रमुखता का ही झगड़ा था। अब आशा है हम सब मिलकर सोचेंगे कि आगे कैसे चलें और इंदिरा गांधी की तानाशाही सरकार का मुकाबला करें। उम्मीद है पिछले अनुभव से सीख लेते हुए पांच दलों ने (जनसंघ, भारतीय लोक दल, अकाली दल, सोसलिस्ट पार्टी, कांग्रेस अ.) मिलकर जयप्रकाश नारायण को अपना अगुवा मानते हुए कार्य करने का सोचा है वह सफल हो।
कांग्रेस तथा समाजवादी दल जिसमें मेरा राजनैतिक जीवन सन् 1946 से 1964 तक बीता वह मेरे विचार से काफी अच्छा रहा। मैं इन वर्षों में कई पदों पर रहा। उस दौरान बड़े-बड़े विचारकों, अच्छे कार्यकर्ताओं की संगति तथा विभिन्न सम्मेलनों में सक्रियता से भाग लेकर गुणी नेतागणों की नजदीकी पाकर बहुत कुछ सीखा। कुछ बातें जो उस समय की मेरे राजनैतिक जीवन के शुरूवात की हैं उन्हें भी प्रसंगों के रूप में लिख देना चाहता हूँ।
प्रस्तुतकर्ता udanti.com पर 10:19 pm
लेबल: जेल डायरी - किश्त तीन
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