शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

किश्त चार

राजनीति में सक्रियता और पिताजी की बीमारी
सेंट्रल जेल रायपुर 16 जुलाई 1975
1952 का चुनाव और मेरी जीत
कांग्रेस में अनिवार्य रूप से पहले खादी पहनना तथा सूत कातना जरूरी था। जब मैं कांग्रेस का पदाधिकारी बना उससे पहले कुछ प्रमुख नेता ऐसे थे जो खादी नहीं पहनते थे पर फिर भी विभिन्न पदों पर बने रहे थे। मैंने इसका विरोध किया और चाहा कि कांग्रेस के विधान के अनुसार कार्य हो। ग्रामीण क्षेत्र के लोग तो इसका पालन करते थे पर शहर के कुछ प्रमुख नेता इसका पालन नहीं करते थे। मैंने बलौदाबाजार क्षेत्र में इसका विरोध किया जो बहुतों को बुरा लगा। जनपद तथा लोक कल्याण बोर्ड के चुनावों में भी इसी कारण से मेरा विरोध होता रहा। अन्त में मुझे जनपद से इस्तीफा देना पड़ा और आचार्य कृपलाणी की नई पार्टी किसान मजदूर प्रजा पार्टी में 1951 में शामिल हो गया। सन् 1952 में मैंने विधानसभा का चुनाव लड़ा और अपनी इच्छा के विरूद्ध ऐसे व्यक्ति के खिलाफ लड़ा जिन्हें मैं बचपन से जानता था, उनका बड़ा आदर करता था, उन्हीं के कारण बलौदाबाजार तहसील में कांग्रेस का अस्तित्व था। वे सन् 1930 से लगातार जेल गये, पूरे जिले व तहसील में जाने माने नेता थे। वे थे मेरे विरोधी वकील लक्ष्मी प्रसाद जी तिवारी। उन्होंने ही मुझे तहसील का अध्यक्ष बनाया था । वे हमारे पारिवारिक मित्र भी थे। पर मुझे पार्टी का आदेश खासतौर से ठा. प्यारेलाल सिंह की बात मानते हुए उनके विरूद्ध चुनाव लडऩा पड़ा। तब वे प्रांत में किसान मजदूर प्रजा पार्टी (के.एम.पी.पी.) के सर्वेसर्वा थे। उस चुनाव में मेरी लगभग 1000 वोट से जीत हुई। तिवारी जी का बड़प्पन देखिए, वे चुनाव के बाद मेरे पास आये और मुझे आशीर्वाद दिया। उनके इस व्यवहार से पता चलता है कि चुनाव में हार जीत को वे आपसी संबंधों के आगे बहुत छोटा समझते थे। इन चुनाव में मुझे सबसे ज्यादा जिनका सहयोग मिला वे मेरे साथी थे- हरिप्रेम बघेल, बद्रीप्रसाद बघेल, गुलाबराम धुरंधर, सरहूराम , पांडे, सुंद्रावन के हरिजन उम्मीदवार, चोखे लाल कश्यप, पं. बद्रीप्रसाद तिवारी, जरवे के अग्रवाल, लहौद का साहू समाज, मोतीलाल मिश्र व जगदीश प्रसाद मिश्र कसडोल आदि। इस चुनाव में मुझे पलारी क्षेत्र से बहुत ही ज्यादा मदद मिली। इस क्षेत्र का कोई भी गांव ऐसा नहीं था जहां किसान मजदूर प्रजा पार्टी के लिए काम करने वाला झोपड़ी छाप का कार्यकर्ता न हो, इतना ही नहीं वे सब अपने ही बूते पर दिन रात कार्य करते थेे। मुझसे इस क्षेत्र के किसी भी कार्यकर्ता ने कभी चुनावी खर्च के लिए पैसा नहीं मांगा। जिसके पास आने जाने का साधन नहीं था सिर्फ उसके लिए सायकल की व्यवस्था करनी पड़ी। इसी क्षेत्र ने ही मुझे 1952 के चुनाव में जीत दिलाई। यह क्षेत्र कोसमंदी कसडोल क्षेत्र कहलाता था तथा डबल मेम्बर क्षेत्र था। लेकिन कसडोल का दूसरा हिस्सा जो नदी के उस पार जंगल के हिस्से में आता है, से कांग्रेस की तुलना में मुझे 10 प्र.श. मत ही मिल पाया, पलारी क्षेत्र में कांग्रेस के मुकाबले 80 प्र.श. मत मिला, लेकिन हमारा हरिजन उम्मीदवार हार गया। मेरी जीत का कारण हमारे वे कार्यकर्ता थे जो, लगातार कई वर्षों से जगह- जगह सभाएं लेते आ रहे थे। इन सभाओं में डॉ. प्यारेलाल सिंह, डॉ. खूबचंद बघेल, ताम्रकरजी, डॉ. ज्वालाप्रसाद तथा डॉ. छेदीलाल आदि आते थे। एक समय तो बहुत बड़ा सम्मेलन बलौदा बाजार में हुआ वहां सभी बड़े नेता तो पंहुचे ही साथ में डॉ. निरंजन सिंह और सिहौरा के काशी प्रसाद पांडे जो विधानसभा के सबसे पुराने सदस्य थे भी पंहुचे उन्होंने ही इस सम्मेलन की अध्यक्षता की। यह एक सफल आयोजन था जिसका प्रभाव न केवल बलौदा बाजार तहसील में पड़ा बल्कि रायपुर जिले में भी पड़ा। इस तरह की सक्रियता के कारण ही मैं अपने पहले चुनाव में एक बहुत कर्मठ नेता पं. लक्ष्मीप्रसाद तिवारी को मात दे सका। इस चुनाव के बाद मैं राजनीति में काफी सक्रिय हो गया तथा पूरे जिले में डॉ. खूबचंद बघेल तथा ठा. प्यारेलाल के आदर्शों के अनुसार संगठन के कार्यों में लग गया। जिले में मैंने सबसे पहले अपने ही क्षेत्र पलारी में विकास योजना का ब्लाक बनवाया। जिले के इस पहले ब्लाक का उद्घाटन मैंने डां. बघेल सेकरवाया। कांग्रेस के कई नेता इससे नाराज हो गये और इसकी रिपोर्ट पं. रविशंकर शुक्ला से की गई। दरअसल पंडितजी विधानसभा के दो चुनाव इसी पलारी बलौदा बाजार क्षेत्र से लड़ चुके थे- सन् 1937 तथा सन् 1945 का। दोनों चुनाव में हम लोगों ने उन्हें भरपूर सहयोग दिया था। 1957 में दूसरी जीत इस प्रकार जिले के इस पहले ब्लाक के जरिये तथा साथ में पार्टी के दूसरे सभी कार्यकर्ता की मदद से मैंने 1957 में फिर प्रजा सोसलिस्ट पार्टी ( पी. एस. पी.) से चुनाव लड़ा इस चुनाव में मुझे ज्यादा सफलता मिली और मैं 8-9 हजार मतों से कांग्रेस से जीता। मेरा हरिजन उम्मीदवार इस बार भी 40-50 मतों से हार गया इसका मुझे बड़ा रंज रहा और जो खुशी चुनाव के जीत की थी वह सब जाती रही। हमने इस बार नहीं सोचा था कि हमारा हरिजन उम्मीदवार हार जावेगा इस बार भी यह डबल मेंबर क्षेत्र था। ...और 1962 की हार फिर तीसरा चुनाव 1962 का आया। 1957 तथा 1962 के बीच मेरा कार्यक्षेत्र बढ़ जाने के कारण मैं विधानसभा व पार्टी कार्य में प्रांतीय स्तर पर ज्यादा समय देने लगा था, जिससे मेरा अधिकतर समय जिले और क्षेत्र के बाहर ही बीतता था जिसके कारण आम जनता से मेरा संपर्क कुछ कम हो गया था, परिणाम यह हुआ कि 1962 के चुनाव में मैं 150 से 200 मतों से हार गया। दु:ख तो हुआ पर मैंने अपनी गलती भी महसूस की। कार्यकर्ता गण बहुत निराश हुए। बाद में मुझे पता चला कि इतने कम मतों से चुनाव हारने का क्या कारण था। दरअसल चुनाव के 8-10 दिन पहले हमारे 3 या 4 सबसे अच्छे कार्यकर्ताओं को कांग्रेस ने लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया था। इस चुनाव के 4 माह बाद मेरे प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार का देहान्त हो गया और 1962 में ही उपचुनाव का फिर से मौका आ गया। लोग मुझे फिर से चुनाव के लिए कहने लगे । ठा. निरंजन सिंह और डॉ. खूबचंद बघेल ने बहुत जोर डाला कि चुनाव तो लडऩा ही पड़ेगा। क्योंकि सबको ऐसा अंदाज था कि पं. द्वारका प्रसाद मिश्र को इस चुनाव के लिए कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार मान लिया है। मैं चुनाव लडऩे के पक्ष में नहीं था इसलिए नहीं कि पं. द्वारका प्रसाद मिश्र मेरे प्रतिद्वंदी होंगे बल्कि इसलिए कि उस दौरान मेरे पिताजी (कलीराम) का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। पिताजी ने मेरे 1962 के चुनाव की हार पर कुछ भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। जब हार के बाद मैं उनसे मिला तो उन्होंने मुझसे कुझ अधिक ही प्रेम से बात की और काम भी बतलाया जिससे मेरा मन खराब न हो और मैं व्यस्त हो जाऊं।पिताजी के निधन से मैं अकेला हो गया जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं मेरे लिए 1962 बहुत ही खराब साल था इसलिए नहीं कि चुनाव हार गया था, बल्कि इसलिए क्योंकि पिताजी बहुत अधिक कमजोर हो गये थे। उनकी मुझे बड़ी चिंता रहती थी। वे इलाज के लिए अधिकतर बलौदा बाजार रहते थे बीच- बीच में पलारी भी आ जाया करते थे। सन् 1962 के चुनाव के बाद डॉ. खूबचंद बघेल बलौदाबाजार आये और मुझे फिर चुनाव में खड़ा होने के लिए कहने लगे कि ठा. निरंजन सिंह तथा सभी साथियों तथा उनकी भी इच्छा है कि मैं चुनाव लडू़ं। उनने कई बार इस बात का वादा किया हम सब इस चुनाव की पूरी जिम्मेदारी लेते हैं। इस चुनाव में डॉक्टर साहब भी एम.पी. का चुनाव हार गये थे और विद्याचरण शुक्ला के खिलाफ उनकी चुनाव याचिका चल रही थी। उस केस को मैं भी देखता था । उन्हें मुझ पर विश्वास कुछ ज्यादा ही था, कोई भी पेशी ऐसी नहीं थी जिसमें वे मुझे न ले जाते हों। लेकिन पिताजी की हालत देखकर मैंने चुनाव लडऩे से मना कर दिया। डॉक्टर बघेल बड़े निराश हुए फिर भी उनने मेरा पीछा नहीं छोड़ा, वे पिताजी के पास गये। पिताजी डॉक्टर साहब को बहुत मानते थे। गत 30 वर्षों का उन दोनों का सामाजिक तथा राजनैतिक कार्यों में साथ था, खास तौर से स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान वे हमेशा पं. रविशंकर शुक्ल जी के साथ पलारी आया करते थे। जब पिताजी की तबियत कुछ ठीक हुई तो डॉ. बघेल ने चुनाव की बात पुन: छेड़ दी। पिताजी ने कहा डॉक्टर साहब 'तुम दूनो झन त हार गे हव' ( तुम दोनों तो हार गए हो) तब डॉक्टर साहब ने कहा कि चुनाव में उतार-चढ़ाव होता ही रहता है क्या हुआ हार गये तो। तब पिताजी ने भी कहा ' ठीक कहते हो हार- जीत तो लगे रहता है पर मैंने सुना है कि वकील (जब से मैंने वकालत शुरू की थी तब दूसरों के साथ बात करते समय पिताजी मुझे वकील ही कहकर बुलाते थे) से जिसने चुनाव जीता है उसका निधन हो गया है। यह बात सुनकर डॉक्टर साहब को बात करने का अच्छा मौका मिल गया, कहने लगे कि मैं उन्हीं की खातिर तो आया हूं पर वकील (डॉ. बघेल भी मुझे वकील ही कहा करते थे) चुनाव में खड़े होने को राजी नहीं है। फिर पिताजी ने प्रश्न किया कि वकील चुनाव क्यों नहीं लडऩा चाहते? डॉक्टर साहब मेरे चुनाव न लडऩे की बात पिताजी को बताने में हिचक रहे थे, पर बार-बार पूछने पर बोले कि वे आपकी तबियत को लेकर चिंतित हैं और आपकी देख- भाल करना चाहते। यह सुनकर पिताजी कुछ नाराज हो गए और बोले - बला त वकील ला बड़ा मोर अउ घर के फिकर वाला होगे, कहां हे (बुलाओ तो वकील को बड़ा मेरा और घर का फिक्र वाला बनता है) मैं बाहर खड़ा सुन रहा था, एक दो बार पुकारने के बाद मैं अंदर गया और मैंने अपनी बात फिर दोहरा दी कि मेरी चुनाव लडऩे की इच्छा नहीं है। 10 साल से तो विधायक बनते आ रहा हूं, अब और दूसरे काम करूंगा। पिताजी को मेरी बात ठीक नहीं लगी, उनने मुझे लगभग हुक्म सा दिया- 'तोला का बात के फिकर हे मोर राहत, खरचा के बारे में सोचत होवे त में देहूं । मोर तबियत के बारे में सोचत होबे त ईश्वर सब ठीक कर ही, तोला इंहा रहेच के जरूरत नहीं है, आवत- जावत तो रहिबे करथस। खड़ा हो, नहीं झन का, डाक्टर के कहे ला मान ले, हम जानत हन डॉक्टर ला बहुत जिद्दी आदमी हावय, जोन काम में भिड़ जाथे वोला पूरा करके रहिथे, तैं फिकर झन कर चुनई में खड़े हो जा।' (तुम्हें किस बात की फिक्र है मेरे रहते , खर्च के बारे में सोच रहे हो तो वह मैं दूंगा। मेरी तबियत के बारे में सोच रहे हो तो ईश्वर सब ठीक करेंगे। तुम्हें यहां मेरे पास ही रहने की जरूरत नहीं। तुम आते- जाते तो रहते ही हो। चुनाव में खड़े हो जाओ मना मत करो, डॉ. को हम बहुत दिन से जानते हैं वह बहुत जिद्दी आदमी हैं, जिस काम में भिड़ जाते हैं उसे पूरा करके ही मानते हैं, तुम फिक्र मत करो खड़े हो जाओ) उनकी बात सुनकर मेरी आंखों में आंसू आ गये मैं बिना कुछ बोले कमरे से बाहर हो गया। मैं सोचने लगा कि पिताजी बिस्तर से उठ नहीं पाते और मुझसे ऐसी बात कर रहे हैं। आखिर उनके दिल में क्या था, क्या वे हार का बदला लेना चाहते थे? क्या उन्हें खराब लगा था कि मैं हार गया । उस दिन मैंने महसूस किया कि वे मुझे हमेशा ऊंचा उठाने की सोचा करते थे, उस हालत में भी मुझे जोश से कह रहे हैं कि क्यों पीछे हटते हो। यह सब सुनकर डॉक्टर साहब ने कहा मैं भोपाल पत्र लिख देता हूं कि तुम चुनाव में हमारे उम्मीदवार होगे। चाहे तुम्हारे खिलाफ पं. द्वारका प्रसाद मिश्र ही क्यों न खड़े हों। वह घड़ी मेरे लिए परीक्षा की घड़ी थी क्या करूं क्या न करूं। फिर भी मैं चुप रहा। थोड़े दिनों के बाद पिताजी की तबियत और भी ज्यादा खराब हो गई । उन्होंने बलौदाबाजार से पलारी चलने के लिए कहा मैं उन्हें पलारी ले गया, फिर उनकी तबियत देखकर उन्हें रायपुर ले आया। रायपुर के बड़े अस्पताल के एक पेइंग वार्ड में उन्हें भर्ती कर दिया। वहां के एक्सपर्ट डॉक्टरों की सलाह से उन्हें दवाई देना शुरू किया गया पर 3 या 4 दिनों बाद उनकी तबियत ज्यादा खराब दिखने लगी, डॉक्टरों ने दवाई बदली पर कुछ भी असर होते नहीं दिखा। एक दिन मैं किसी काम से थोड़ी देर के लिए बाहर निकला था, कि उनने अपना सारा समान उठाया और रायपुर के पुराने घर में आ गये, मैं दंग रह गया कि यह क्या हो गया। उनने मुझसे इतना ही कहा मैं अस्पताल में नहीं रहना चाहता, अच्छा नहीं लग रहा है यहां। कोई वैद्य बुलावो। तब मैंने वैद्य भी बुलाया लेकिन बीमारी में कोई सुधार के लक्षण नहीं थे। उनने पलारी जाने की इच्छा जताई। मैं उन्हें पलारी ले आया। वहां भी दवाई चलती रही पर उनकी हालत खराब ही होती गई। मैं वह पूरी रात इधर से उधर आंगन में पागल सा घूमता रहा। एकादशी की सुबह लगभग 8-9 बजे उनका प्राणांत हो गया। बाद में लोगों ने मुझे बताया कि एकादशी की सुबह कोसमंदी से मिलने आए कुछ बुजुर्गों ने जब उनकी तबियत के बारे में पूछा था तब उनने कहा था कि मैं अब नहीं बचूंगा। मुझे वह सब कुछ मिल गया जो मुझे चाहिए था, अपनी जिंदगी से मैं पूर्ण संतुष्टï हूं। मेरी इच्छा के अनुकूल पलारी के बालसमुंद के सिद्धेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार भी मेरे बेटे ने कर दिया है। मुझे अपनी दोनों बहुओं तथा बेटे पर पूरा विश्वास है कि वे मेरे घर की प्रतिष्ठा को और आगे बढ़ायेंगे। अब तो मेरे पोता- पोती भी हो गये हैं अब मुझे किसी भी बात की जरा भी चिंता नहीं। आज जब यह सब लिख रहा हूं, मुझे फिर उनकी कुछ बातें याद आ रहीं है। मैंने उनका उत्साह तथा प्रसन्नता जीवन में दो बार सबसे ज्यादा देखा था- जब मेरा पहला लड़का पैदा हुआ तब उनने गांव में भव्य- भागवत कथा का आयोजन किया था। और खुले दिल से हजारों लोगों को निमंत्रण देकर बुलाया और उन्हें भोजन कराया। दूसरी बार की उनकी खुशी तो देखते ही बनती थी, जब राजू (दूसरा बेटा) पलारी में पैदा हुआ। उस दिन बलीराम काका जी के घर शादी थी, पर तबियत खराब होने के कारण पिताजी पैदल आना- जाना नहीं करते थे। जबकि शादी वाले घर की दूरी बहुत कम थी, अत: वे मोटर- गाड़ी से आते- जाते थे। शादी वाले घर में जब उनने पोता होने का समचार सुना तो वे यह भी भूल गए कि वे तो मोटर गाड़ी से आते- जाते हैं। वे सीधे उठे और लम्बे- लम्बे डग भरते पैदल ही घर आ गये। मैं उनकी वह खुशी भूल नहीं पाता। पिताजी के स्वर्गवास के बाद मैं कुछ दिनों तक शून्य सा हो गया अपने को अनाथ महसूस करने लगा था। मित्रों ने मुझे दिलासा दिया। पिताजी के श्राद्ध कार्यक्रम में बहुत लोग आये। उनका क्षेत्र में बड़ा प्रभाव था। उनके चाहने वालों की भारी संख्या थी। रायपुर, दुर्ग तथा बिलासपुर से लोग दूर-दूर से आये थे। जो नहीं आ पाए उनके ढेरो पत्र आए। डॉ. बघेल और विद्याचरण शुक्ल की चुनावी लड़ाई पिताजी के देहान्त के बाद मैं कुछ दिनों तक पलारी में ही रहा। फिर बलौदाबाजार चला गया वहीं ज्यादा समय बिताने लगा। क्योंकि बच्चे बलौदाबाजार में ही पढ़ते थे। इसी बीच डॉक्टर खूबचंद बघेल पिताजी के श्राद्ध कार्यक्रम होने के 1 माह बाद बलौदाबाजार आए और मुझे सांत्वना देते हुए बोले- जो होना था सो तो हो गया अब ज्यादा उदास मत रहो, चुनाव की तैयारी करनी है चलो रायपुर। मेरी( बघेल जी की) चुनाव याचिका की पेशी भी है उसमें भी तुम्हें रहना है। इस तरह मैं डॉक्टर साहब के साथ रायपुर आ गया। डॉक्टर साहब ने बताया कि दुर्ग वाले ताम्रकर वकील जो मेरी चुनाव याचिका को लेकर जिम्मेदारी से लड़ रहे थे उनने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली है और अब वे याचिका की पैरवी नहीं करेंगे। इस पर मैंने कहा कि किसी सीनियर वकील से बात कर लेते हैं। तब डॉक्टर साहब ने कहा मैं सभी बड़े वकीलों के पास जा चुका हूं, सबने इंकार कर दिया है और फिर एक- दो दिनों में गवाही होनी है क्या करें? मैं सोचने लगा कि क्या किया जा सकता है। मैंने वकालत सन् 57 से बंद कर दी है अत: मैंने कहा कि जी.एच. अग्रवाल वकील को कानून एवं दरखास्त आदि के लिए रख लेते हैं, बाकी गवाहों की जिरह मैं कर लूंगा। डॉक्टर साहब राजी हो गये और अग्रवाल वकील के यहां बैठकें होने लगी कि गवाहों से कैसे-कैसे जिरह करना है। हमारी ओर से एक के बाद एक गवाही होने लगी। इस केस में तिवारी जी जज थे, वे मिलिटरी से आए थे तथा बहुत ज्यादा सख्त थे। केस के दौरान जब मैं विद्याचरण शुक्ला से जिरह कर रहा था तब शुक्ला जी ने एक कागज पेश किया कि डॉक्टर साहब तो उनके पिताजी (पं. रविशंकर शुक्ल) के समय से अनाप-शनाप कुछ न कुछ इल्जाम लगाते रहते हैं। और इसके बाद उन्होंने एक पर्चा छपा हुआ पेश किया जिसमें मेरा, डॉक्टर साहब का तथा ठाकुर रामकृष्ण के दस्तखत थे। उसमें हम तीनों ने उस वक्त अर्थात सन् 1957 के पहले जब शुक्ला जी मध्यप्रदेश के चीफ मिनिस्टर थे, 'तब चीफ मिनिस्टर जवाब दें' कहकर उन पर उनके गलत कार्यों तथा गलत ढंग से पैसा कमाने आदि को लेकर 10-15 इल्जाम लगाए थे। लेकिन जज ने उस पर्चे को पेश करने से इंकार कर दिया, इस पर मैंने कहा हम लोग मंजूर करते हैं कि यह पर्चा हम लोगों ने ही छपाया है और बांटा है, आप फाइल में रख लें । फिर भी जज ने कहा कि इस मौके पर हम इसे रखने का इजाजत नहीं दे सकते, तब मैंने उनसे प्रार्थना की, कि आप इस पेपर को फाइल में रख लें और आर्डरसीट में लिख दें कि इस पर विचार नहीं किया जायेगा। मेरी बात जज ने मान ली। लीफलेट रख लिया गया। मैंने क्रास क्यूश्चन में इस लीफलेट के बारे में पूछा पर जज ने उसे नामंजूर किया, तब मैंने कहा आप मेरा प्रश्न लिख लीजिए और उसे इंकार करते जाइये मुझे कोई एतराज नहीं है कि आप मेरे प्रश्न का जवाब देने के लिऐ इन्हें मजबूर करते है या नहीं। जज ने ऐसा ही किया। फैसले में जज ने हमारे विरूद्ध फैसला दिया। इसपर मैंने जज को धन्यवाद देते हुए कहा कि आप ने अच्छा किया मुझे खुशी है। यह सुनकर जज ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा- आपको हार कर भी खुशी है। मैंने कहा आपने हमारी सभी बातें मान ली हैं सिर्फ कानून में हमारे खिलाफ फैसला है इसलिए हम आगे जीत जाएंगे। और हाईकोर्ट में ऐसा ही हुआ हम जीत गये । इस तरह आगामी 6 साल तक विद्याचरण शुक्ला चुनाव में नहीं खड़े हो सकते वाली हमारी अपील मंजूर हुई। इस बड़ी जीत पर हम सबने खुशी मनाई। पर विद्याचरण ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की वहां भी उसकी हार हुई। हाई कोर्ट का फैसला मान लिया गया पर इस हाईकोर्ट के फैसले में एक बात फिर विद्याचरण ने एक अलग से और दरखास्त लगाई कि उनके पिता पं. रविशंकर शुक्ला के ऊपर फैसले में जज ने लिखा है कि 'पं. रविशंकर शुक्ला लाखों रूपया तो भले ही न खाये हों पर हजारों जरूर खाया है।' उसे फैसले से अलग कर दें आखिर इससे उनका क्या संबंध है। पर उनका वह दरखास्त भी नामंजूर हो गया। मैंने जिस लीफलेट का उल्लेख ऊपर किया है, जिसमें हम लोगों के दस्तखत थे, तथा जिसे जज से कहकर फाइल में रखवा दिया था उसी पर यह ऊपर का रिमार्क हुआ। मुझे खुशी हुई की उन्हीं का पेश किया कागज उन्हीं के खिलाफ गया। उस दिन मैंने जज से प्रार्थना करके उसे फाइल में रखवा लिया वही काम आया।

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