बृजलाल वर्मा-
मेरे बाबूजी की जेल डायरी
- डॉ. रत्ना वर्मा
25 जून 1975 की आधी रात को श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा पूरे देश में आपातकाल लगाने की घोषणा के साथ ही कांग्रेस विरोधी राजनैतिक दलों के प्रमुख तथा सक्रिय कार्यकर्ताओं को देश भर की विभिन्न जेलों में कैद कर लिया गया। मेरे बाबूजी (स्व. श्री बृजलाल वर्मा ) भी उनमें से एक थे। जेल में रहते हुए आपताकाल के उन 22 महीनों में उन्होंने अपने जीवन की खट्टी – मीठी यादों को, जिसमें उनके बचपन से लेकर शिक्षा, वकालत, परिवार और फिर राजनीतिक जीवन की घटनाएँ शामिल हैं, डायरी के रूप में लिखना आरंभ किया।
इस जेल डायरी में उनने
अपने जीवन विभिन्न पहलुओं का उल्लेख किया है । अपने जीवन में आए उतार – चढ़ाव के साथ लोगों से अपने
संबंधों के बारे में बहुत कुछ लिखने का प्रयास है उनकी यह डायरी। इसे एक प्रकार से
उनका संक्षिप्त जीवन वृत्तान्त भी
कह सकते हैं।
बाबूजी ने लॉ की पढ़ाई की
थी,
आजादी के आंदोलन में भी छात्र जीवन में उन्होंने भाग लिया
था। वे राजनैतिक और सामाजिक जीवन
में ताउम्र सक्रिय
रहे, अतः वक्ता तो बहुत अच्छे रहे ही, उनके ज्ञान का मंडार भी असीमित था। वे हमेशा से ही अध्ययनशील रहे हैं; अतःअलग –
अलग विषयों पर लिखी किताबें बहुत पढ़ते थे। साहित्य के प्रति भी उनका गहरा लगाव था
– गुरुदत्त, शरतचन्द्र, प्रेमचंद, बकिंमचंद, टैगोर, गांधी आदि अनेक लेखकों की किताबें वे पढ़ते
रहते थे। घर में उनकी अपनी छोटी- सी लाइब्रेरी थी, जिसमें कानून की किताबों के अलावा राजनीति, साहित्य और विभिन्न मनीषियों पर हिन्दी और अंग्रेजी की
सैकड़ों किताबें थीं। गीता, रामायाण, महाभारत जैसी अनेक धार्मिक, पौराणिक पुस्तकों का भंडार भी था; परंतु लेखनी में उनकी पकड़ कितनी थी, यह बात मुझे उनकी यह जेल डायरी पढ़ने के
बाद ही पता चली।
बरसों तक उनकी लिखी ये
डायरियाँ मेरी माँ के पास उनकी अलमारी में सुरक्षित रखी रहीं। अपने जीवन काल में बाबूजी ने भी कभी
इनकी ओर पलटकर क्यों नहीं देखा और इनके प्रकाशन की दिशा में कोई प्रयास क्यों नहीं
किया?
मुझे नहीं मालूम? दरअसल आपातकाल के बाद वे अपने राजनीतिक और सामाजिक जीवन में
इतने व्यस्त हो गए कि उन्होंने आपातकाल के दौरान जेल में लिखी अपनी डायरी की ओर एक
बार पलटकर देखा तक नहीं; जबकि जनता
शासन के बनने से लेकर सरकार चलाने के उन 22 महीनों की व्यथा- कथा को भी वे अपनी
डायरी में लिख सकते थे; क्योंकि तब जनता पार्टी को अनेक दलों
ने मिलकर एक विशेष उद्देश्य, इंदिरा गांधी की तानाशाही को खत्म करने हेतु आपातकाल के
विरोध में खड़ा किया था। जनता पार्टी के बनने से लेकर बिखरने तक, राजनैतिक उठा-
पटक और सफलता- असफलता तक की सम्पूर्ण कहानी के वे प्रत्यक्ष गवाह थे। इतने जतन और
कुर्बानी देकर तैयार हुई यह पार्टी क्यों इतनी जल्दी धराशायी हो गई,
किन कमजोरियों की वजह से इतनी भारी सफलता मिलने के बाद भी
वे सब अधिक समय तक साथ नहीं चल सके ? आदि अनेक प्रश्नों के जवाब उनके पास थे । अगर वे इस विषय पर भी लिखते, तो उस समय ‘जनता शासन’ के इतनी
जल्दी गिर जाने के बारे में उनका अपना पहलू भी सबके सामने आता।
जितना उनको जानने वाले और
हम परिवार वालों ने समझा, बाद
की राजनैतिक उठापटक से वे इतने हतोत्साहित हो गए थे कि एक तरह से अपने आपको राजनीति से किनारा करते चले जा रहे थे।। वे उस
समय की राजनीति के
साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाए। निराशा और हताशा भरे शब्दों में वे कहा भी करते थे- ‘लोग अब देश को दूसरे नम्बर पर रखते हैं। कोई काम करने से
पहले वे देश का नहीं, अपना
फायदा देखते हैं।’ खैर...
अनेक प्रश्नों के उत्तर को अपने सीने में दबाए वे चले गए; परंतु जितना भी वे हमें दे गए हैं, वह सब हमारी धरोहर है। आपातकाल की ज्यादतियों का जैसा कच्चा चिट्ठा उन्होंने अपनी
डायरी में पिरो दिया है, उसे सबको जानना और समझना चाहिए।
देश और प्रदेश के लिए
उन्होंने जो कुछ किया, उन्हें
जानने वाले जानते हैं । वे उनमें से नहीं थे, जो अपने कामों
का ढिंढोरा पीटें। यद्यपि वे जब तक रहे, खाली नहीं बैठे।
उनसे जो बन पड़ा, वे करते ही रहे और आगे भी करते रहना चाहते
थे; परंतु कुछ अपनों ने ही उन्हें किनारे कर दिया। वरिष्ठता
के क्रम में कार्य करने के लिए जो अधिकार और स्थान उन्हें मिलना था, उन्हें नहीं मिला। संभवतः यही कुछ कारण हो सकते हैं, जिससे उन्होंने फिर
इन विषयों पर कलम नहीं उठाई। एक और बड़ा कारण था- असमय ही
उनका दुनिया से चले जाना। 20 जुलाई 1987 को वे हम सबको छोड़कर चले गए। हो सकता
उम्र के कुछ और पड़ाव उन्हें मिलते, तो वे बाद के जीवन के
अनुभवों को भी अपनी डायरी में उतार पाते। फिर भी जितना कुछ भी उन्होंने जेल में रहकर लिखा, वह सब उनके बचपन से लेकर उनके राजनैतिक, सामाजिक
और पारिवारिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करता है, जो उनके
व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए पर्याप्त है।
उनके चले जाने के कई बरसों
बाद एक अलमारी में सुरक्षित उनकी डायरियों को पढ़ने के लिए जब मैंने बाहर निकाला
और एक- एक करके पढ़ते चली गई ,तो मुझे लगा- क्या उनके लिखे इन अनुभवों और जीवन के
विभिन्न पहलुओं को सबके
सामने लाया जा सकता है?
सांध्य दैनिक छत्तीसगढ़ के
संपादक श्री सुनील कुमार जी से इस डायरी के संदर्भ में बात हुई तब उन्होंने अपनी
साप्ताहिक पत्रिका ‘इतवारी
अखबार’ में इसे किश्त
वार प्रकाशित करने का जिम्मा उठाया। (उन दिनों मैं इस साप्ताहिक पत्रिका का संपादन
कर रही थी) इस तरह आपातकाल की 30 वीं
बरसी पर 22 जून 2008 से 15 फरवरी 2009 तक प्रति
सप्ताह ‘मेरे बाबूजी की जेल डायरी’ के कुछ अंश ‘आपातकाल की कहानी बृजलाल वर्मा की
जुबानी’ शीर्षक से इसका क्रमश: प्रकाशन हुआ।
और आज तो आपातकाल की 50 वीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है। अब उनकी सम्पूर्ण डायरी को- ‘मेरे बाबूजी की जेल डायरी’ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की योजना है। देखिए कब यह स्वप्न पूरा होता है।
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